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जैन परम्परा का इतिहास
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पूर्वो और अगो के बचे-खुचे अंशो के लुप्त होने का प्रसंग आया । तब आचार्य धरसेन (विक्रम दूसरी शताब्दी ) ने भूतवलि और पुष्यदन्त नाम दो साधुओ को श्रुताभ्यास कराया । इन दोनों ने षट्खण्डागम की रचना की । लगभग इसी समय मे आचार्य गुणधर हुए । उन्होने कपाय-प्राभृत रचा । ये पूर्वो के गेशांप है। इसलिए इन्हें पूर्वो से उद्धृत माना जाता है । इन पर प्राचीन कई टीकाए लिखी गई है, वे उपलब्ध नहीं है। जो टीका वर्तमान मे उपलब्ध है, वह आचार्य वीरसेन की है । इन्होने विक्रम संवत् ८७३ मे षटखण्डागम की ७२ हजार श्लोक-प्रमाण घवला टीका लिखी।
कषाय-पाहुड पर २० हजार श्लोक-प्रमाण टीका लिखी । वह पूर्ण न हो सकी, बीच मे ही उनका स्वर्गवास हो गया । उसे उन्ही के शिष्य जिनसेनाचार्य ने पूर्ण किया । उसकी पूर्ति विक्रम सम्वत् ८६४ मे हुई । उसका शेष भाग ४० हजार श्लोक-प्रमाण और लिखा गया। दोनो को मिला इसका प्रमाण ६० हजार श्लोक होता है। इसका नाम जय-धवला है। यह प्राकृत और सस्कृत के सक्रान्ति काल की रचना है । इसीलिए इसमे दोनों भाषाओ का मिश्रण है ।
पट-खण्ड का अन्तिम भाग महा-बध है । इसके रचयिता आचार्य भूतवलि है । यह ४१ हजार श्लोक-प्रमाण है । इन तीनों ग्रन्थो मे कर्म का बहुत ही सूक्ष्म विवेचन है।
विक्रम की दूसरी शती मे आचार्य कुन्दकुन्द हुए। इन्होने अध्यात्मवाद का एक नया स्रोत प्रवाहित किया । इनका झुकाव निश्चयनय की ओर अधिक था । प्रवचनसार, समयसार और पंचास्तिकाय-ये इनकी प्रमुख रचनाए है। इनमे आत्मानुभूति की वाणी आज भी उनके अन्तर-दर्शन की साक्षी है ।
विक्रम दशवी शताब्दी में आचार्य नेमिचन्द चक्रवर्ती हुए । उन्होने गोम्मट- - सार और लब्धिसार-क्षपणासार-इन दो ग्रन्थो की रचना की। ये बहुत ही-- महत्त्वपूर्ण माने जाते है । ये प्राकृत-शौरसेनी भाषा की रचनाएँ है।
श्वेताम्वर-आचार्यो ने मध्ययुग में जैन-महाराष्ट्री मे लिखा । विक्रम की तीसरी शती मे शिवशर्म सूरि ने कम्मपपडी, उमास्वाति ने जम्बूद्वीप समास ,