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जैन परम्परा का इतिहास टीकाएं और टीकाकार -
आगमों, के ..पहले संस्कृत-टीकाकार हरिभद्र सूरि है। उन्होंने आवश्यक, दशवकालिक, नन्दी, अनुयोगद्वार, जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति और जीवाभिगम पर टीकाएं लिखी।
विक्रम की तीसरी शताब्दी मे,उमास्वाति ने जैन-परम्परा में जो संस्कृतवाङ्मय, का द्वार खोला, वह अब विस्तृत होने लगा। शीलांक सूरि ने आचारांग और सूत्रकृतांक पर टीकाएं लिखी। शेष नव अंगो के टीकाकार है-अभयदेव सूरि । अनुयोगद्वार पर मलधारी हेमचन्द्र की टीका है। नन्दी, प्रज्ञापना, व्यवहार, चन्द्र-प्रज्ञप्ति, जीवाभिगम, आवश्यक, वृहत्कल्प, राजप्रश्नीय आदि के टीकाकार मलयगिरि हैं।
आगम-साहित्य की समृद्धि के साथ-साथ न्याय-शास्त्र के साहित्य का भी, विकास हुआ । वैदिक और बौद्ध न्याय-शास्त्रियो ने अपने-अपने तत्त्वों को तर्क की कसौटी पर कस कर जनता के सम्मुख, रखने का यल किया । तब जैन न्याय . शास्त्री भी इस ओर मुड़े। विक्रम.. की पांचवी शताब्दी में न्याय का जो नया स्रोत चला, वह बारहवी शताब्दी में बहुत व्यापक हो चला !
अठारहवी शताब्दी के उत्तरार्द्ध में न्याय-शास्त्रियों की गति कुछ शिथिल हो गई। आगम के व्याख्याकारों की परम्परा आगे भी चली । विक्रम की १६ वी सदी मे श्रीमद् भिक्षु स्वामी और जयाचार्य आगम के यशस्वी व्याख्याता हुए । श्रीमद् भिक्षु स्वामी ने आगम के सैकड़ों दुरूह स्थलो पर प्रकीर्ण व्याख्याएं लिखी हैं । जयाचार्य ने आचारांग प्रथम श्रुत-स्कन्ध, ज्ञाता, प्रज्ञापना, उत्तराध्ययन ( २७ अध्ययन) और भगवती सूत्र पर पद्यात्मक व्याख्या लिखी । आचारांग (द्वितीय श्रुत-स्कध ) का वार्तिक और आगम-स्पर्शी अनेक प्रकरण रचे ।
इस प्रकार जैन-साहित्य आगम, आगम-व्याख्या और न्याय-शास्त्र से बहुत ही समृद्ध है । इनके आधार पर ही हम जैन दर्शन के हृदय को छूने का यत्न करेंगे। परवर्ती-प्राकृत साहित्य
आगम-लोप के पश्चात् दिगम्बर-परम्परा में जो साहित्य रचा गया, उसमे सर्वोपरि महत्त्व षट-खण्डागस और कषाय-प्रामृत का है ।