________________
जैन परम्परा का इतिहास
[ ३५
"
अव वे सर्व लोक के, सर्व जीवो के सर्वभाव जानने-देखने लगे । उनका साधना-काल समाप्त हो चुका । अव वे सिद्धि-काल की मर्यादा मे पहुंच गए २३| तेरहवें वर्ष के सातवें महीने मे केवली बन गए ।
तीर्थ - प्रवर्त्तन
भगवान् ने पहला प्रवचन देव परिपद् मे किया । देव अति विलासी होते है । वे व्रत और सयम स्वीकार नही करते । भगवान् का पहला प्रवचन निष्फल हुआ ।
と
--
भगवान् जभियग्राम नगर से विहार कर मध्यम पावापुरी पधारे । वहाँ सोमिल नामक ब्राह्मण ने एक विराट् यज्ञ आयोजन कर रखा था । उस अनुष्ठान की पूर्ति के लिए वहाँ इन्द्रभूति प्रमुख ग्यारह वेदविद् ब्राह्मण आये हुए थे२५ ।
भगवान् को जानकारी पा उनमे पाण्डित्य का भाव जागा । इन्द्रभूति उठे । भगवान् को पराजित करने लिए वे अपनी शिष्य-सम्पदा के साथ भगवान् के समवसरण में आये ।
उन्हें कई जीव के बारे मे सन्देह था । भगवान् ने उनके गूढ प्रश्न को स्वय सामने ला रखा । इन्द्रभूति सहम गए । उन्हें सर्वथा प्रच्छन्न अपने विचार के प्रकाशन पर अचरज हुआ । उनकी अन्तर आत्मा भगवान् के चरणो मे झुक गई |
भगवान् ने उनका सन्देह-निवर्तन किया । वे उठे, नमस्कार किया और श्रद्धापूर्वक भगवान् के शिष्य बने । भगवान् ने उन्हें छह जीव- निकाय, पांच महाव्रत और पच्चीस भावनाओ का उपदेश दिया २६ ।
इन्द्रभूति गौतम गोत्री थे । जैन साहित्य मे इनका सुविश्रुत नाम गौतम है । भगवान् के साथ इनके सम्वाद और प्रश्नोत्तर इसी नाम से उपलब्ध होते है । वे भगवान् के पहले गणधर और ज्येष्ठ शिष्य बने । भगवान् ने उन्हें श्रद्धा का सम्बल तर्क का वल दोनो दिए । जिज्ञासा की जागृति के लिए भगवान् ने कहा "जो सशय को जानता है, वह ससार को जानता है, जो सशय को नहीं जानता, वह ससार को नही जानता ७ ”
२
इसी प्रेरणा के फलस्वरूप उन्हे जब-जब सराय हुआ, कुतूहल हुआ, श्रद्धा हुई भगवान् के पास पहुँचे और उनका समाधान लिया
।
८