________________
७०]
जैन परम्परा का इतिहास परम्परा २२० वर्ष तक चली। उनके अन्तिम अध्येता ध्रुवसेन हुए । उनके पश्चात् एक अग आचारांग का अध्ययन ११८ वर्ष तक चला। इसके अन्तिम अधिकारी लोहार्य हुए । वीर-निर्वाण ६८३ (वि० सवत् २१३ ) के पश्चात् आगम-साहित्य सर्वथा लुप्त हो गया । केवल ज्ञान के लोप की मान्यता में दोनो सम्प्रदाय एक मत है ' चार पूर्वो का लोप भद्रबाहु के पश्चात् हुआ, इसमे ऐक्य है । केवल कालदृष्टि से आठ वर्ष का अन्तर है । श्वेताम्बर मान्यता के अनुसार उनका लोप वीर-निर्वाण के १७० वर्ष पश्चात् हुआ और दिगम्बर-मान्यता के अनुसार १६२ वर्ष पश्चात् । यहाँ तक दोनो परम्पराएँ आस-पास चलनी है । इसके पश्चात् उनमे दूरी बढती चली जाती है । दशवें पूर्व के लोप की मान्यता मे दोनो मे काल का बडा अन्तर है । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार दशपूर्वी वीर-निर्वाण से ५४८ वर्ष तक हुए और दिगम्बर परम्परा के अनुसार २४५ वर्ष तक। श्वेताम्बर एक पूर्व को परम्परा को देवर्द्धिगणि तक ले जाते और आगमो के कुछ मौलिक भाग को अब तक सुरक्षित मानते है । दिगम्बर वीर-निर्वाण ६८३ वर्प पश्चात आगमो का पूर्ण लोप स्वीकार करते है।
आगम का मौलिक रूप
दिगम्बर-परम्परा के अनुसार वीर-निर्वाण के ६८३ के पश्चात--आगमो का मौलिक स्वरून लुप्त हो गया।
श्वेताम्बर मान्यता है कि आगम साहित्य का मौलिक स्वरूप बड़े परिणाम में लुप्त हो गया किन्तु पूर्ण नही, अब भी वह शेष है । अगो और उपांगों की जो तीन बार सकलना हुई, उसमे मौलिक रूप अवश्य ही बदला है । उत्तरवर्ती घटनाओ और विचारगाओ का समावेश भी हुआ । स्थानांग में सात निह्नवो और नव गणो का उल्लेख सष्ट प्रमाग है । प्रश्न-व्याकरण का जो विषय-वर्णन है, वह वर्तमान रूप में उपलब्ध नही है । इस स्थिति के उपरान्त भी अगो का अधिकांश भाग मौलिक है । भाषा और रचना-शैली की दृष्टि से वह प्राचीन है । आचारांग का प्रथम श्रुत रचना-शैली की दृष्टि से शेप सव अगो से भिन्न है। आज के भाषाशास्त्री उसे ढाई हजार वर्ष प्राचीन वतलाते है । सूत्र कृतांग, स्थानांग