________________
जैन परम्परा का इतिहास
[७३ संज्ञाक्षर है । इसका अर्थ होता है-अक्षर की आकृति-सस्थान लिपि । लेख-सामग्री
प्राग-ऐतिहासिक काल में लिखने की सामग्नी कैसी थी, यह निश्चय पूर्वक नही कहा जा सकता२७ । राजप्रश्नीय सूत्र मे पुस्तक रत्न का वर्णन करते हुए कम्बिका (कामी ), मोरा, गांठ, लिप्यासन ( मषिपात्र ) छदन, (ढक्कन) सांकली, मपि और लेखनी-इन लेख सामग्नी के उपकरणो की चर्चा की गई है । प्रज्ञापना में 'पोत्यारा' शब्द आता है२८ । जिसका अर्थ होता है-लिपिकारपुस्तक-विज्ञान-आर्य-इसे शिल्पार्य में गिना गया है तथा इसी सूत्र में बताया गया है कि अर्ध-मागधी भाषा और ब्राह्मी लिपि का प्रयोग करने वाले भापार्य होते है । भगवती सूत्र के आरम्भ मे ब्राह्मी लिपि को नमस्कार किया गया है, उसकी पृष्ठभूमि मे भी लिखने का इतिहास है । भाव-लिपि के पूर्व वैसे ही द्रव्यलिपि रहती है, जैसे भाव-श्रुत के पूर्व द्रव्य-श्रुत होता है । द्रव्य-श्रुत धूयमाण शब्द और पाठ्यमान शब्द दोनो प्रकार का होता है । इससे सिद्ध है कि द्रव्य-लिपि द्रव्य-श्रुत से अतिरिक्त नही, उसी का एक अश है। स्थानांग मे पाँच प्रकार की पुस्तकें वतलाई है३० -(१) गण्डी (२) कच्छवी (३) मुष्टि (४) सपुट फलक (५) सृपाटिका । हरिभद्र सूरि ने भी दशवकालिक टीका मे प्राचीन आचार्यो की मान्यता का उल्लेख करते हुए इन्ही पुस्तको का उल्लेख किया है। निशीथ चूर्णी में भी इनका उल्लेख है । अनुयोग द्वार का पोत्यकम्म (पुस्तक. कर्म) शब्द भी लिपि की प्राचीनता का एक प्रबल प्रमाण है । टीकाकार ने पुस्तक का अर्थ ताड-पत्र अथवा सपुटक-पत्र सचय किया है और कर्म का अर्थ उसमे वर्तिका आदि से लिखना । इसी सूत्र मे आये हुए पोत्यकार (पुस्तककार ) शब्द का अर्थ टीकाकार ने 'पुस्तक के द्वारा जीविका चलाने वाला' किया है । जीवाभिगम (३ प्रति ४ अधि० ) के पोत्यार (पुस्तककार ) शब्द का भी यही अर्थ होता है । भगवान् महावीर की पाठशाला में पढ़ने लिखने की घटना भी तात्कालिक लेखन-प्रथा का एक प्रमाण है । वीर-निर्माण की दूसरी शताब्दी में आक्रान्ता सम्राट सिकन्दर के सेनापति निआस ने लिखा है 33.-'भारतवासी लोग कागज बनाते थे३४ ।' ईसवी के दूसरे शतक मे ताड़ पत्र और चौथे मे भोज-पत्र लिखने