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जैन परम्परा का इतिहास
के व्यवहार में लाए जाते थे ३५ । वर्तमान में उपलब्ध लिखित ग्रन्थों में ई० स० पांचवीं मे लिखे हुए पत्र मिलते हैं ३६ । तथ्यों के आधार पर हम जान सकते हैं कि भारत में लिखने की प्रथा प्राचीनतम है । किन्तु समय-समय पर इसके लिए किन-किन साधनों का उपयोग होता था, इसका दो हजार वर्ष पुराना रूप जानना अति कठिन है । मोटे तौर पर हमें यह मानना होगा कि भारतीय वाङ्मय का भाग्य लम्बे समय तक कण्ठस्थ - परम्परा में ही सुरक्षित रहा है । जैन, बौद्ध और वैदिक तीनों परम्पराओ के शिष्य उत्तराधिकार के रूप में अपने-अपने आचार्यों द्वारा विधान का अक्षय कोष पाते थे ।
आगम लिखने का इतिहास
जैन दृष्टि के अनुसार श्रुत-आगम की विशाल ज्ञान राशि १४ पूर्व में संचित है । वे कभी लिखे नही गए। किन्तु अमुक-अमुक परिणाम स्याही से उनके लिखे जा सकने की कल्पना अवश्य हुई है - द्वादशवर्षीय दुष्काल के बाद मथुरा में
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आर्य - स्कन्दिल की अध्यक्षता में साधु- संघ एकत्रित हुआ । आगमों को संकलित कर लिखा गया और आर्य स्कन्दिल ने साधुओ को अनुयोग की वाचना दी। इस लिए उनकी वाचना माथुरी वाचना कहलाई । इनका समय वीर निर्माण ८२७ से ८४० तक माना जाता है । मथुरा वाचना के ठीक समय पर वल्लभी में नागार्जुन सूरि ने श्रमण संघ को एकत्र कर आगमों को संकलित किया । नागाजुन और अन्य श्रमणों को जो आगम और प्रकरण याद थे, वे लिखे गए । सकलित आगमों की वाचना दी गई, यह 'नागार्जुनीय' वाचना कहलाती है । कारण कि इसमें नागार्जुन की प्रमुखता थी । वीर निर्माण ६५० वर्ष में देवद्विगणि क्षमाश्रमण ने फिर आगमो को पुस्तकारूड किया और सघ के समक्ष उसका वाचना किया | यह कार्य बलभी में सम्पन्न हुआ । पूर्वोक्त दोनो वाचताओं के समक्ष लिखे गए आगमों के अतिरिक्त अन्य प्रकरण-ग्रन्थ भी लिखे गए। दोनो वाचनाओ के सिद्धान्त का समन्वय किया गया और जो महत्वपूर्ण भेद थे उन्हे 'पीठान्तर' आदि वाक्यावली के साथ आगम, टीका, चूर्णि मे सगृहीत किया गया ३८ ।
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