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जैन परम्परा का इतिहास
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और भगवती भी प्राचीन हे । इसमे कोई सन्देह नही, आगम का मूल आज भी सुरक्षित है। अनुयोग
अनुयोग का अर्थ है-सूत्र और अर्थ का उचित सम्बन्ध, वे चार हैं (१) चरणकरणानुयोग (२) धर्मकथानुयोग (३) गणितानुयोग (४) द्रव्यानुयोग ।
आर्य-वज तक अनुयोग के विभाग नही थे । प्रत्येक सूत्र मे चारो अनुयोगो का प्रतिपादन किया जाता था । आर्य-रक्षित ने इस पद्धति में परिवर्तन किया । इसके निमित्त उनके शिष्य दुर्बलिका पुष्यमित्र वने । आर्य-रक्षित के चार प्रमुख शिष्य थे दुर्वलिका-पुप्य, फल्गुरक्षित, विन्थ्य और गोष्ठामाहिल । विन्व्य इनमे मेघावी था। उसने आर्य-रक्षित से प्रार्थना की -"प्रभो । मुझे महपाठ में अध्ययननामग्नी बहुत बिलम्ब से मिलती है । इसलिए गीन मिले, ऐसी व्यवस्था कीजिए।" आर्य-रक्षित ने उसे आलापक देने का भार दुर्वलिका पुण्य को सौपा। कुछ दिन तक वे उसे वाचना देते रहे । फिर एक दिन दुर्वलिका पुष्य ने आर्य-रक्षित से निवेदन किया-गुरुदेव ! इसे वाचना दूंगा तो मेरा नवां पूर्व विस्मृत हो जाएगा । अव जो आर्यवर का आदेश हो वही करूं । आर्य-रक्षित ने सोचादुबलिका पुप्य की यह गति है । अब प्रज्ञा-हानि हो रही है। प्रत्येक सूत्र में चारो अनुयोगो को धारण करने की क्षमता रखने वाले अव अधिक समय तक नही रह नकेंगे । चिन्तन के पश्चात् उन्होने आगमो को-चार अनुयोगो के रूप मे विभक्त कर दिया।
आगमों का पहला संस्करण भद्रवाहु के समय मे हुआ था और दूसरा मंस्करण आर्य-रक्षित ने ( वीर-निर्वाण ५८४-५६७ मे ) किया । इस सस्करण मे व्याख्या की दुल्हता मिट गई। चारो अनुयोगो मे आगमों का विभाग इस प्रकार किया -
(१) चरण-करण-अनुयोग -कालिक सूत्र (२) धर्मकथानुयोग
- उत्तराध्ययन आदि ऋपि-भापित (३) गणितानुयोग ( कालानुयोग ) -सूर्य प्रज्ञति आदि (४) द्रव्यानुयोग
- दृप्टिवाद२१