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जैन परम्परा का इतिहास जो कुत्तो को भगवान् को काटने के लिए प्रेरित करते । वहाँ जो दूसरे श्रमण थे, वे लाठी रखते, फिर भी कुत्तो के उपद्रव से मुक्त नही थे । भगवान् के पास अपने बचाव का कोई साधन नही था, फिर भी वे शान्तभाव से वहाँ धूमते रहे।
भगवान् का संयम अनुत्तर था । वे स्वस्थ दशा में भी अवमौदर्य करते ( कम खाते ), रोग होने पर भी वे चिकित्सा नहीं करते, औपध नही लेते। वे विरेचन, वमन, तैल-मर्दन, स्नान, दतौन आदि नही करते । उनका पथ इन्द्रिय के कांटो से अबाध था। कम खाना और औषध न लेना स्वास्थ्य के लिए हितकर है । भगवान् ने वह स्वास्थ्य के लिए नही किया । वे वही करते जो आत्मा के पक्ष में होता । उनकी सारी कठोरचर्या आत्म-लक्षी-थी। अन्न-जल के बिना दो दिन, पक्ष, मास, छह मास बिताए । उत्क्टक, गोदोहिका आदि आसन किए, ध्यान किया, कपाय को जीता, आसक्ति को जीता, यह सब निरपेक्ष भाव से किया । भगवान् ने मोह को जीता, इसलिए वे 'जिन' कहलाए । भगवान् की अप्रमत्त साधना सफल हुई।
ग्रीष्म ऋतु का वैशाख महीना था । शुक्ल दशमी का दिन था । छाया पूर्व की ओर ढल चुकी थी। पिछले पहर का समय, विजय मुहूर्त और उत्तरा-फाल्गुनी का योग था । उस वेला में भगवान् महावीर जभियग्नाम नगर के बाहर ऋजुबालिका नदी के उत्तर किनारे श्याम गाथापति की कृषि-भूमि मे व्यावृत नामक चैत्य के निकट, शाल-वृक्ष के नीचे 'गोदोहिका' आसन में बैठे हुए ईशानकोण की ओर मुह कर सूर्य का आताप ले रहे थे। __दो दिन का निर्जल उपवास था । भगवान् शुक्ल ध्यान में लीन थे । ध्यान __ का उत्कर्ष वढा । खपक श्रेणी ली । भगवान् उत्क्रान्त बन गए। उत्क्रान्ति के
कुछ ही क्षणो मे वे आत्म-विकास की आठ, नौ ओर दशवी भूमिका को पार कर गये। बारहवी भूमिका में पहुंचते ही उनके मोह का बन्धन पूर्णा शतः टूट गया। वे वीतराग बन गए । तेरहवी भूमिका का प्रवेश-द्वार खूला । वहाँ ज्ञानावरण, दर्शना वरण और अन्तराय के सम्बन्ध भी पूर्णतः टूट पड़े।
भगवान् अब अनन्त ज्ञानी, अनन्त-दर्शनी और अनन्त-वीर्य बन गए।