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जैन परम्परा का इतिहास
सामर्थ्य की बात है, उसे बदलना उसके सामर्थ्य से परे भी हो सकता है । आत्मिक वातावरण बदला जा सकता है। भगवान् ने इस सामर्थ्य का पूरा उपयोग किया। भगवान ने नीद पर भी विजय पाली। वे दिन-रात का अधिक भाग खड़े रह कर ध्यान मे विताते । विश्राम के लिए थोडे समय लेटते, तब भी नीद नही लेते । जब कभी नीद सताने लगती तो भगवान् फिर खडे होकर ध्यान मे लग जाते । कभी-कभी तो सर्दी की रातो मे घडियो तक बाहर रह कर नीद टालने के लिए ध्यान-मन्न हो जाते।
भगवान् ने पूरे साधना-काल मे सिर्फ एक मुहूर्त तक नीद ली। शेष सारा समय ध्यान और आत्म-जागरण मे बीता।
भगवान् तितिक्षा की परीक्षा-भूमि थे। चड-कोशिक सॉप ने उन्हे काट खाया। और भी सॉप, नेवले आदि सरीसृप जाति के जन्तु उन्हे सताते । पक्षियो ने उन्हे नोचा।
भगवान् को मौन और शून्य गृह-वास के कारण अनेक वष्ट झेलने पडे । ग्राम-रक्षक, राजपुरुष और दुष्कर्मा व्यक्तियो का कोप-भाजन बनना पडा । उनने कुछ प्रसगों पर भगवान् को सताया, यातना देने का प्रयत्न किया।
भगवान् अबहुवादी थे । वे प्राय मौन रहते थे। आवश्यकता होने पर भी विशेष नहीं बोलते । एकान्तस्थान में उन्हे खड़ा देख लोग पूछते--तुम कौन हो ? तव भगवान् कभी-कभी बोलते। भगवान् के मौन से चिढ कर वे उन्हें सताते । भगवान् क्षमा-धर्म को स्व-धर्म मानते हुए सब कुछ सह लेते । वे अपनी समाधि ( मानसिक सन्तुलन या स्वास्थ्य ) को भी नही खोते ।
कभी-कभी भगवान् प्रश्नकर्ता को संक्षिप्त सा उत्तर भी देते । मैं भिक्षु हूँ, यह कह कर फिर अपने ध्यान में लीन हो जाते।
देवो ने भी भगवान् को अछूता नही छोडा। उनने भी भगवान् को घोर उपसर्ग दिये । भगवान् ने गन्ध, शब्द और स्पर्श सम्बन्धी अनेक कष्ट सहे ।
सामान्य बात यह है कि कष्ट किसी के लिए भी इष्ट नही होता । स्थिति यह है कि जीवन मे कष्ट आते है। फिर वे प्रिय लगे या न लगें। कुछ व्यक्ति कष्टो को विशुद्धि के लिए वरदान मान उन्हें हूंस-हँस झेल लेते है। कुछ व्यक्ति