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जैन परम्परा का इतिहास इसलिए उत्तरवर्ती साहित्य-रचना के समय इसे पूर्व कहा गया । दूसरी विचारणा के अनुसार द्वादशांगी के पूर्व ये चौदह शास्त्र रचे गए, इसलिए इन्हें पूर्व कहा गया । पूर्वो में सारा श्रुत समा जाता है । किन्तु साधारण बुद्धि वाले उसे पढ नहीं सकते। उनके लिए द्वादशांगी की रचना की गई। आगम-साहित्य में अध्ययन-परम्परा के तीन क्रम मिलते है । कुछ श्रमण चतुर्दश पूर्वी होते थे, कुछ द्वादशांगी के विद्वान् और कुछ सामायिक आदि ग्यारह अगो को पढते थे। चतुर्दश पूर्वी श्रमणो का अधिक महत्त्व रहा है । उन्हे श्रुत-केवली कहा गया है।
नाम
विषय
पद-परिमाण
एक करोड
१-उत्पाद २-अग्नायणीय
द्रव्य और पर्यायो की उत्पत्ति द्रव्य, पदार्थ और जीवो का
परिमाण सकर्म और अकर्म जीवो के
वीर्य का वर्णन
छियानवे लाख
३-वीर्य-प्रवाद
सत्तर लाख
साठ लाख
४--अस्तिनास्ति
प्रवाद ५- ज्ञान-प्रवाद ६-~सत्य-प्रवाद ७-आत्म-प्रवाद 4-कर्म-प्रवाद
पदार्थ की सत्ता और असत्ताका निरूपण ज्ञान का स्वरूप और प्रकार सत्य का निरूपण आत्मा और जीव का निरूपण कर्म का स्वरूप और प्रकार
एक कम एक करोड एक करोड़ छह छब्बीस करोड एक करोड़ अस्सी
लाख चौरासी लाख एक करोड दस
६-प्रत्याख्यान-प्रवाद व्रत-आचार, विधि-निपेव १०-विद्यानुप्रवाद सिद्धियों और उनके साधनो
का निरूपण ११-अवन्ध्य ( कल्याण ) शुभाशुभ फल की अवश्य
भाविता का निरूपण
लाख
छब्बीस करोड