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जैन परम्परा का इतिहास इसलिए जैन-साहित्य की प्राचीन प्राकृत में देश्य शब्दो की बहुलता है। मागधी और देश्य शब्दो का मिश्रण अर्ध-मागधी कहलाता है। यह जिनदास महत्तर की व्याख्या है, जो सम्भवत सब से अधिक प्राचीन है। इसे आर्य भी कहा जाता है।२ । आचार्य हेमचन्द्र ने इसे आप कहा-उनका मूल आगम का ऋषि-भाषित शब्द है'। आगमों का प्रामाण्य और अप्रामाण्य
केवली, अवधि-ज्ञानी, मन पर्यव-ज्ञानी, चतुर्दश पूर्वधर और दशपूर्वधर की रचना को आगम कहा जाता है । आगम मे प्रमुख स्थान द्वादशांगी या गणि-पिटक का है। वह स्वत प्रमाण है। शेष आगम परत. प्रमाण हैद्वादशांगी के अविरुद्ध है, वे प्रमाण है, शेप अप्रमाण । आगम-विभाग
आगम-साहित्य प्रणेता की दृष्टि से दो भागो मे विभक्त होता है। (१) अग-प्रविष्ट (२) अनग-प्रविष्ट । भगवान् महावीर के ग्यारह गणधरो ने जो साहित्य रचा, वह अग-प्रविष्ट कहलाता है। स्थविरो ने जो साहित्य रचा, वह अनग-प्रनिष्ट कहलाता है। बारह अगों के अतिरिक्त सारा आगम-साहित्य अनग-प्रविष्ट है । गणधरो के प्रश्न पर भगवान् ने त्रिदी-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का उपदेश दिया। उसके आधार पर जो आगम-साहित्य रचा गया, वह अंग-प्रविष्ट और भगवान् के मुक्त व्याकरण के आधार पर स्थविरो ने जो रचा, वह अनग-प्रविष्ट है।
द्वादशांगी का स्वरूप सभी तीर्थकरो के समक्ष नियत होता है। अनगप्रविष्ट नियत नही होता ४ | अभी जो एकादश अग उपशब्ध है वे सुधर्मा गणधर की वाचना के है। इसलिए सुधर्मा द्वारा रचित माने जाते है ।।
अनंग-प्रविष्ट आगम-साहित्य की दृष्टि से दो भागो में बटता है। कुछेक आगम स्थविरो के द्वारा रचित है और कुछेक नियंढ । जो आगम द्वादशांगी या पूर्वो से उद्धृत किये गए, वे नियूंढ कहलाते है । दशवकालिक, आचारांग का दूसरा श्रुत-स्कन्ध, निशीथ, व्यवहार, वृहत्कल्प, दशाश्रुत-स्कन्ध-ये नियूंढ आगम है।
दशवकालिक का निर्दूहन अपने पुत्र मनक की आराधना के लिए