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जैन परम्परा का इतिहास
[३६ दृष्टि से भगवान् का संघ सर्वोपरि था। पांच महाव्रत और व्रत-ये मूल गुण थे। इनके अतिरिक्त उत्तर गुणो की व्यवस्था की। विनय, अनुशासन और आत्म-विजय पर अधिक बल दिया। व्यवस्था की दृष्टि से श्रमण-संघ को ११ या ६ भागो मे विभक्त किया । पहले सात गणधर सात गणो के और आठवें, नवे, दगवे, तथा ग्यारहवें क्रमश आठवें और नवें गण के प्रमुख थे। ___ गणो की सारणा-वारणा और शिक्षा दीक्षा के लिए पद निश्चित किए। (१) आचार्य (२) उपान्याय (३) स्थविर (४) प्रवर्तक (५) गणी (६) गणधर (७) गणावच्छेदक।
सूत्र के अयं की वाचना देना और गण का सर्वोपरि सचालन का कार्य आचार्य के जिम्मे था।
सूत्र की वाचना देना, शिक्षा की वृद्धि करना उपाध्याय के जिम्मे था।
श्रमणो को सयम मे स्थिर करना, श्रामण्य से डिगते हुए श्रमणो को पुनः स्थिर करना, उनकी कठिनाइयो का निवारण करना स्थविर के जिम्मे था।
आचार्य द्वारा निर्दिष्ट धर्म-प्रवृत्तियो तथा सेवा-कार्य मे श्रमणो को नियुक्त करना प्रवर्तक का कार्य था ।
श्रमणो के छोटे-छोटे समूहो का नेतृत्व करना गगी का कार्य था। श्रमणो की दिनचर्या का ध्यान रखना-गणघर का कार्य आ।
धर्म-शासन भी प्रभावना करना, गण के लिए विहार व उपकरणो की खोज तथा व्यवस्था करने के लिए कुछ साघुओ के माथ सघ के आगे-आगे चलना, गण की सारी व्यवस्था की चिन्ता करत्रा गणावच्छेदक का कार्य था ३४ | इनकी योग्यता के लिए विशेप मानदण्ड स्थिर किए। इनका निर्वाचन नही होता था। ये आचार्य द्वारा नियुक्त किए जाते थे। किन्तु स्थविरो की सहमति होती थी 3५॥ निर्वाण
भगवान् तीस वर्ष की अवस्था मे श्रमण वने । साढे वारह वर्ष तक तपस्वी जीवन विताया। तीस वर्ष तक धर्मोपदेश किया। भगवान् ने काशी, कोशल, पचाल, कलिग, कम्बोज, कुरु-जांगल, वाहलीक, गांधार, सिंधु सौवीर आदि देशो मे विहार किया।