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जैन परम्परा का इतिहास
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वीच-बीच मै इसके समन्वय के प्रयल भी होते रहे है। यापनीय सघ (जिसकी स्थापना वी० नि० को सातवी शताब्दी के लगभग हुई ) श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनो परम्पराओ का समन्वित रूप था। इस संघ के मुनि अचेलल आदि को दृष्टि से दिगम्बर-परम्परा का अनुसरण करते थे और मान्यता की दृष्टि से श्वेताम्बर थे। वे स्त्री-मुक्ति को मानते थे और श्वेताम्बर-सम्मत आगम-साहित्य का अध्ययन करते थे।
समन्वय की दृष्टि और भी समय-समय पर प्रस्फुटित होती रही है। कहा गया है :
कोई मुनि दो वस्त्र रखता है, कोई तीन, कोई एक और कोई अचेल रहता है। वे परस्पर एक दूसरे की अवज्ञा न करें। क्योकि यह सब जिनाज्ञा-सम्मत है । यह आचार-भेद शारीरिक शक्ति और धृति के उत्कर्प और अपकर्ष के आधार पर होता है। इसलिए सचेल मुनि अचेल मुनियो की अवज्ञा न करें और अचेल मुनि सचेल मुनियों को अपने से हीन न मानें। जो मुनि महाव्रत-धर्म का पालन करते हे और उद्यत-विहारी है, वे सब जिनाज्ञा में है४० । चैत्यवास और संविग्न
स्यानांग सूत्र मे भगवान् महावीर के नौ गणो का उल्लेख मिलता है५. । इनके नाम क्रमश इस प्रकार है - १-गोदास-गण २-उत्तर-बलिस्सइ-गण ३-उद्देह-गण ४- चारण-गण ५-उडुपाटिन-गण ६-वेश-पाटिक-गण ७-कामद्धि-गण ८-मानव-गण
६-कोटिक-गण गोदास भद्रवाहु स्वामी के प्रथम शिष्य थे। उनके नाम से गोदास-गण का प्रवर्तन हुआ। उत्तर बलिस्सइ आर्य महागिरि के शिष्य थे। दूसरे गण का . प्रवर्तन इनके द्वारा हुआ। ___ आर्य सुहस्ती के शिष्य स्थविर रोहण से उद्देह-गण, स्थविर श्री गुप्त से चारण-गण, भद्रयश से उडुपाटित-गण, स्थविर कामद्धि से वेशपाटिक-गण और उसका अन्तर कुल कामद्धिगण, स्थविर ऋषिगुप्त से मानव-गण और स्थविर सुस्थित-सुप्रतिबुद्ध से कोटिक गण प्रवर्तित हुए५१ ।
आर्य सुहस्ती के समय शिथिलाचार की एक स्फुट रेखा निर्मित हुई थी।