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जैन परम्परा का इतिहास
[५३ श्वेताम्बर-दिगम्बर
दिगम्बर- सम्प्रदाय की स्थापना कब हुई ? यह अव भी अनुसन्धान सापेक्ष है । परम्परा से इसकी स्थापना विक्रम को सातवी शताब्दी मे मानी जाती है । श्वेताम्बर नाम कव पडा-यह भी अन्वेषण का विषय है । श्वेताम्बर और दिगम्वर दोनो सापेक्ष शब्द है । इनमे से एक का नाम-करण होने के बाद ही दूसरे के नाम-करण की आवश्यकता हुई है।
भगवान् महावीर के सघ मे सचेल और अचेल दोनो प्रकार के श्रमणो का समवाय था । आचारांग १८ मे सचेल और अचेल दोनो प्रकार के श्रमणो के मोह-विजय का वर्णन है।
सचेल मुनि के लिये वस्त्रपणा का वर्णन आचारांग २।५ मे है । अचेल मुनि का वर्णन आचारांग श६ मे है । उत्तराध्ययन २।१३ मे अचेल और सचेल दोनो अवस्याओ का उल्लेख है । आगम-काल मे अचेल मुनि जिनकल्पित४३ और सचेल मुनि स्थविरकल्पिक कहलाते थे४४ । __ भगवान् महावीर के महान् व्यक्तित्व के कारण आचार की द्विविधता का जो समन्वित रूप हुआ, वह जम्बू स्वामी तक उसी रूप मे चला । उनके पश्चात् आचार्य परम्परा का भेद मिलता है । श्वेताम्बर पट्टावली के अनुसार जम्बू के पश्चात् शय्यम्भव, यशोभद्र, सम्भूत विजय और भद्रवाहु हुए और दिगम्बर-मान्यता के अनुसार नन्दी, नन्दीमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रवाहु हुए । ___ जम्बू के पश्चात् कुछ समय तक दोनो परम्पराएं आचार्यों का भेद स्वीकार करती है और भद्रवाहु के समय फिर दोनो एक बन जाती है । इस भेद और अभेद से सैद्धान्तिक मतभेद का निष्कर्प नही निकाला जा सकता । उस समय सघ एक था, फिर गण और शाखाएं अनेक थी । आचार्य और चतुर्दशपूर्वी भी अनेक थे। किन्तु प्रभव स्वामी के समय से ही कुछ मतभेद के अकुर फूटने लगे हो, ऐसा प्रतीत होता है।
गय्यम्भव ने दगवै० में - 'वस्त्र रखना परिग्रह नही है'-इस पर जो बल दिया है और ज्ञातपुत्र महावीर ने सयम और लज्जा के निमित्त वस्त्र रखने को परिग्रह नही कहा है-इस वाक्य द्वारा भगवान् के अभिमत को साक्ष्य किया