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जैन परम्परा का इतिहास है४५। उससे आन्तरिक मत-भेद की सूचना मिलती है । कुछ शताब्दियो के पश्चात् शय्यम्भव का 'मुच्छा परिग्गहो वुत्तो' वाक्य परिग्रह की परिभाषा बन गया। उमास्त्राति का 'मूर्छा-परिग्रह-सूत्र' इसी का उपजीवी है४६ ।
जम्बू स्वामी के पश्चात् 'दस वस्तुओं' का लोप माना गया है। उनमे एक जिनकल्पिक अवस्था भी है४७ । यह भी परम्परा-भेद की पुष्टि करता है। भद्रबाहु के समय ( वी० नि० १६० के लगभग ) पाटलिपुत्र मे जो वाचना हुई, उन दोनो परम्पराओ का मत-भेद तीन हो गया। इससे पूर्व श्रुत विषयक एकता थी। किन्तु लम्बे दुष्काल में अनेक श्रुतधर मुनि दिवंगत हो गए। भद्रबाहु की अनुपस्थिति में ग्यारह अगो का सकलन किया गया। वह सब को पूर्ण मान्य नही हुआ । दोनो का मत-भेद स्पष्ट हो गया। माथुरी वाचना में श्रुत का जो रूप स्थिर हुआ, उसका अचेलव-समर्थको ने पूर्ण बहिष्कार कर दिया । इस प्रकार आचार और श्रुत विषयक मत-भेद तीन-होते-होते वीर-निर्वाण को सातवी शताब्दी मे एक मूल दो भागो में विभक्त हो गया।
श्वेताम्बर से दिगम्बर-शाखा निकली, यह भी नही कहा जा सकता और दिगम्बर से श्वेताम्बर शाखा का उद्भव हुआ, यह भी नही कहा जा सकता । एक दूसरा सम्प्रदाय अपने को मूल और दूसरे को अपनी शाखा बताता है। पर सच तो यह है कि साधना को दो शाखाए, समन्वय और सहिष्णुता के विराट् प्रकाण्ड का आश्रय लिए हुए थी, वे उसका निर्वाह नहीं कर सकी, काल-परिपाक से पृथक हो गई । अथवा यो कहा जा सकता है कि एक दिन साधना के दो बीजो ने समन्वय के महातरु को अकुरित किया और एक दिन वही महातरु दो भागो में विभक्त हो गया । किंवदन्ती के अनुसार वीर निर्वाण ६०६ वर्ष के पश्चात् दिगम्बर-सम्प्रदाय का जन्म हुआ, यह श्वेताम्बर मानते है और दिगम्बर-मान्यता के अनुसार वीर-निर्वाण ६०६ में श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रारम्भ हुआ। सचेलत्व और अचेलत्व का आग्रह और समन्वय दृष्टि
जब तक जैन-शासन पर प्रभावशाली व्यक्तित्व का अनुशासन रहा, तब तक सचेलत्व और अचेलत्व का विवाद उग्न नहीं बना। कुन्द-कुन्द ( जिसका समय विक्रम की दूसरी शताब्दी है ) के समय यह विवाद तीव्र हो उठा था४८ ।