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जैन परम्परा का इतिहास
[५७ (आचार्य भिक्षु ) ने वि० स० १८१७ मे तेरापय का प्रर्वतन किया । आचार्य भिक्षु ने आचार-शुद्धि और सगठन पर बल दिया। एक सूत्रता के लिए उन्होने अनेक मर्यादाओ का निर्माण किया । गिष्य-प्रया को समाप्त कर दिया । थोडे ही समय में एक आचार्य, एक आचार और एक विचार के लिए तेरापथ प्रसिद्ध हो गया । आचार्य भिक्षु आगम के अनुगीलन द्वारा कुछ नये तत्त्वों को प्रकाश मे लाए । सामाजिक भूमिका में उस समय वे कुछ अपूर्व से लगे। आध्यात्मिक-दृष्टि से वे बहुत ही मूल्यवान है, कुछ तथ्य तो वर्तमान समाज के भी पय-दर्गक वन गए हैं।
उन्होने कहा(१) धर्म को जाति, समाज और राज्यगत नीति से मुक्त रसा जाय । (२) माधन-गुद्धि का उतना ही महत्त्व है, जितना कि नाध्य का। (३) हिनक साधनो से अहिंसा का विकास नही किया जा सकता।
(४) हृदय-परिवर्तन हुए विना किमो को अहिंसक नही बनाया जा मकता ।
(५) आवश्यक हिना को अहिंमा नही मानना चाहिए ।
( ६ ) धर्म और अधर्म क्रिया-काल में ही होते है, उसके पहले-पीछे नही होते।
(७) वडो की सुरक्षा के लिए छोटे जीवो का वध करना अहिमा नही है ।
उन्होने दान और दया के धार्मिक विश्वासो की आलोचना की और उनकी ऐतिहासिक आध्यात्मिकता को अस्वीकार किया।
मिथ-धर्म को अमान्य करते हुए उन्होने आगम की भापा में कहा
"मंक्षेप मे क्रिया के दो स्थान है। १-धर्म, २-~अधर्म५३ । धर्म और अधर्म का मिश्र नही होता।"
गौतम स्वामी ने पूछा - "भगवन् ! अन्य तीर्थिक ऐसा कहते है, प्रज्ञापना और प्ररूपणा करते है-एक जीव एक समय मे दो क्रियाएँ करता है । वे दो कियाएं है- सम्यक और मिथ्या । जिस समय सम्यक क्रिया करता है, उस समय मिथ्या क्रिया भी करता है और जिस समय मिथ्या क्रिया करता है, उस समय मम्यक क्रिया भी करता है। सम्यक क्रिया करने के द्वारा मिथत क्रिया करता है