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जैन परम्परा का इतिहास
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किया जा रहा है किन्तु किया नही गया है, विछाया जा रहा है किन्तु बिछा नहीं है—का सिद्धान्त सही है । इसके विपरीत भगवान् का क्रियमाण कृत और संस्तीर्यमाण सस्तृत-करना शुरू हुआ, वह कर लिया गया, बिछाना शुरू किया, वह विछा लिया गया-यह सिद्धान्त गलत है । चलमान को चलित, यावत् निर्जीर्यमाण को निर्जीर्ण मानना मिथ्या है । चलमान को अचलित यावत् निर्जीयमाण को अनिर्जीर्ण मानना सही है। बहुरतवाद-कार्य की पूर्णता होने पर उसे पूर्ण कहना ही यथार्य है । इस सैद्धान्तिक उथल-पुथल ने जमाली की शरीर वेदना को निर्वीर्य बना दिया । उसने अपने साधुओ को बुलाया और अपना सारा मानसिक
आन्दोलन कह सुनाया । श्रमणो ने आश्चर्य के साथ सुना। जमाली भगवान् के सिद्धान्त को मिथ्या और अपने परिस्थिति-जन्य अपरिपक्व विचार को सत्य बता रहा है । माथे-माथे का विचार अलग-अलग होता है। कुछेक श्रमको को जमाली का विचार रुचा, मन को भाया, उस पर श्रद्धा जमी। वे जमाली की शरण में रहे । कुछ एक जिन्हे जमाली का विचार नही जचा, उस पर श्रद्धा या प्रतीति नही हुई, वे भगवान् की शरण मे चले गए । थोड़ा समय वीता । जमाली स्वस्थ हुआ । श्रावस्ती से चला । एक गांव से दूसरे गांव विहार करने लगा । भगवान् उन दिनो चम्मा के पूर्णभद्र-चैत्य मे विराज रहे थे । जमाली वहाँ आया। भगवान् के पास बैठकर बोला-देवानुप्रिय ! आपके बहुत सारे शिष्य असर्वज्ञ-दशा में गुरुकुल से अलग होते है (छदमस्थापक्रमण करते है ) । वैसे मैं नही हुआ हूँ। मैं सर्वज्ञ ( अर्हत्, निन, केवली ) होकर आप से अलग हुआ हूँ। जमाली को यह बात सुनकर भगवान् के ज्येष्ठ अन्तेवासी गौतम स्वामी बोले-जमाली । सज्ञ का ज्ञान-दर्शन शैल-स्तम्भ और स्तूप से रुद्ध नहीं होता। जमाली ! यदि तुम सर्वज्ञ होकर भगवान् से अलग हुए हो तो लोक शाश्वत है या अशाश्वत ? जीव शाश्वत है या अशाश्वत ? इन दो प्रश्नो का उत्तर दो । गौतम के प्रश्न सुन वह शकित हो गया। उनका यथार्थ उत्तर नही दे सका। मौन हो गया। भगवान् बोले-'जमाली । मेरे अनेक छद्मस्थ शिष्य भी मेरी भांति प्रश्नो का उत्तर देने में समर्थ है। किन्तु तुम्हारी भांति अपने आपको सर्वज्ञ कहने मे समर्य नही है।