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जैन परम्परा का इतिहास
जमाली ! यह लोक शाश्वत भी है और अशाश्वत भी । लोक कभी नहीं था, नही है, नही होगा-ऐसा नही है । किन्तु यह था, है और रहेगा । इसलिए यह शाश्वत है। अवसर्पिणी के बाद उत्सर्पिणी होती है। उत्सर्पिणी के बाद फिर अवसर्पिणी-इस काल-चक्र की दृष्टि से लोक अशाश्वत है। इसी प्रकार जीव , भी शाश्वत और अशाश्वत दोनो है । कालिक सत्ता की दृष्टि से वह शाश्वत है। वह कभी नैरयिक बन जाता है, कभी तिर्यञ्च, कभी मनुष्य और कभी देव । इस रूपान्तर की दृष्टि से वह अशाश्वत है ।” जमाली ने भगवान् की बातें सुनी पर वे अच्छी नही लगी। उन पर श्रद्धा नही हुई । वह उठा, भगवान् से अलग चला गया । मिथ्या-प्ररूपणा करने लगा-झूठी बातें कहने लगा । मिथ्या-अभिनिवेश (एकान्त आग्रह ) से वह आग्रही बन गया । दूसरो को भी आग्नही बनाने का जी भर जाल रचा । बहुतो को झगडाखोर बनाया। इस प्रकार की चर्चा चलती रही। लम्बे समय तक श्रमण वेश मे साधना की । अन्त काल में एक पक्ष की सलेखना की । तीस दिन का अनसन किया । किन्तु मिथ्या-प्ररूपणा या झूठे आग्रह को आलोचना नही की, प्रायश्चित्त नही किया । इसलिए आयु पूरा होने पर वह लान्तककल्प (छठे देव लोक) के नीचे किल्विषिक ( निम्न श्रेणी का ) देव बना ।
गौतम ने जाना-जमाली मर गया है । वे उठे। भगवान के पास आये, वन्दना-नमस्कार कर बोले- भगवान् । आपका अन्तेवासी कुशिष्य जमाली मर फर कहाँ गया है ? कहाँ उत्पन्न हुआ है ? भगवान् बोले-गौतम । वह किल्विषिक देव बना है।
गौतम-भगवान् । किन कर्मों के कारण किल्विषिक देव-योनि मिलती है ?
भगवान्-गौतम ! जो व्यक्ति आचार्य, उपाध्याय, कुल, गण और सघ के प्रत्यनीक (विद्वषी ) होते है, आचार्य और उपाध्याय का अपयश बखानते है, अवर्ण बोलते है और अकीर्ति गाते है, मिथ्या प्रचार करते है, एकान्त आग्रही होते है, लोगो में पांडित्य के मिथ्याभिमान का भाव भरते है, वे साधुपन की विराधना कर किल्विपिक देव बनते है।
(गौतम-भगवान् ! जमाली अणगार अरस-विरम, अन्त-प्रान्त, रूखा