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जैन परम्परा का इतिहास
अव्यक्तवाद
(३) श्वेतविका नगरी के पौलाषाढ़ चैत्य मे आचार्य आषाढ विहार कर रहे थे। उनके शिष्यो मे योग-साधना का अभ्यास चल रहा था। आचार्य का आकस्मिक स्वर्गवास हो गया। उनने सोचा-शिष्यो का अभ्यास अधूरा रह जाएगा। फिर अपने शरीर में प्रविष्ट हो गए। शिष्यों को इसकी कोई जानकारी नही थी। योग-साधना का क्रम पूरा हुआ। आचार्य देव रूप में प्रगट हो बोले-श्रमणो ! मैंने असंयत होते हुए भी संयतात्माओ से वन्दना कराई, इसलिए मुझे क्षमा करना। सारी घटना सुना देव अपने स्थान पर चले गए । श्रमणो को सन्देह हो गया कि कौन जाने कौन साधु है और कौन देव ? निश्चयपूर्वक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यह अव्यक्त मत कहलाया। आषाढ़ के कारण यह विचार चला। इसलिए इसके आचार्य आषाढ हैऐसा कुछ आचार्य कहते है, पर वास्तव में उसके प्रवर्तक आषाद के शिष्य ही होने चाहिए। सांमुच्छेदिकवाद
(४) अश्वमित्र अपने आचार्य कौण्डिल के पास पूर्व-ज्ञान पढ रहे थे। पहले समय के नारक विच्छिन्न हो जायेंगे, दूसरे समय के भी विच्छिन्न हो जायेंगे, इस प्रकार सभी जीव विच्छिन्न हो जायेंगे- यह पर्यायवाद का प्रकरण चल रहा था।
उनने एकान्त-समुच्छेद का आग्रह किया ! वे संघ से पृथक कर दिये गए। उनका मत "सामुच्छेदिवाद" कहलाया। द्वै क्रियवाद
(५) गग मुनि आचार्य धनगुप्त के शिष्य थे। वे शरद् ऋतु मे अपने आचार्य को वन्दना करने जा रहे थे। मार्ग में उल्लुका नदी थी। उसे पार करते समय सिर को सूर्य की गरमी और पैरों को नदी की ठंडक का अनुभव हो रहा था। मुनि ने सोचा-आगम में कहा है-एक समय मे दो क्रियाओ की अनुभूति नहीं होती। किन्तु मुझे एक साथ दो क्रियाओं की अनुभूति हो रही है। गुरु के पास पहुँचे और अपना अनुभव सुनाया। गुरु ने कहा-वास्तव मे एक समय में एक ही क्रिया की अनुभूति होती है। मन का क्रम बहुत सूक्ष्म है।