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जैन परम्परा का इतिहास भगवान् के चौदह हजार साधु और ३६ हजार साध्वियाँ बनी। नन्दी के अनुसार भगवान् के चौदह हजार साधु प्रकीर्णकार थे ३६, इससे जान पडता है, सर्व साधुओ की सख्या और अधिक हो। १ लाख ५६ हजार श्रावक ३७ और ३ लाख १८ हजार श्राविकाएं थी 3८। यह व्रती धावक श्राविकाओ की सख्या प्रतीत होती है। जैन धर्म का अनुगमन करने वालो की सख्या इससे अधिक थी, ऐसा सम्भव है। भगवान् के उपदेश का समाज पर व्यापक प्रभाव हुआ। उनका क्रान्ति-स्वर समाज के जागरण का निमित्त बना। उसका विवरण इसी खण्ड के अन्तिम अध्याय मे मिल सकेगा। वि० पू० ४७० ( ई० पू० ५२७ ) पावापुर मे कार्तिक कृष्णा अमावस्या को भगवान् का निर्वाण हुआ। उत्तरवर्ती संघ-परम्परा
भगवान के निर्वाण के पश्चात् सुधर्मा स्वामी और जम्बू स्वामी-ये दो.. आचार्य वेवली हुए। प्रभव, शय्यम्भव, यशोभद्र, सम्भूतिवजय, भद्रबाहु और स्थूलभद्र-ये छह आचार्य 'श्रुत-केवली' हुए ३९
(१) महागिरि (२) सुहस्ती () गुणसुन्दर (४) कालकाचार्य (५) स्कन्दिलाचार्य (६) रेवतिमित्र (७) मगु (८) धर्म (९) चन्द्रगुप्त (१०) आर्यवन-ये दस पूर्वधर हुए।
तीन प्रधान परम्पराएँ - (१) गणधर-वश । (२) वाचक-वंश-विद्याधर-वश (३) युग-प्रधान
आचार्य सुहस्ती तक के आचार्य गणनायक और वाचनाचार्य वोनो होते थे। वे गण की सार-सम्हाल और गण की शैक्षणिक व्यवस्था-इन दोनो के उत्तरदायित्वो को निभाते थे। आचार्य सुहस्ती के बाद ये कार्य विभक्त हो गए। चारित्र की रक्षा करने वाले 'गणाचार्य' और श्रुतज्ञान की रक्षा करने वाले 'वाचनाचार्य' कहलाए। गणाचार्यो की परम्परा ( गणधरवश ) अपने २ गण के गुरू-शिष्य क्रम से चलती है। वाचनाचार्यो और युग-प्रधानो की परम्परा एक ही गण से सम्बन्धित नही है। जिस किसी भी गण या शाखा में