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जैन परम्परा का इतिहास
[४१ एक के बाद दूसरे समर्थ वाचनाचार्य व युग-प्रधान आचार्य हुए है, उनका क्रम जोडा गया है।
आचार्य सुहस्ती के बाद भी कुछ आचार्य गणाचार्य और वाचनाचार्य दोनो हुए है । जो आचार्य विशेप लक्षण-सम्पन्न और अपने युग मे सर्वोपरि प्रभावशाली हुए, उन्हे युग-प्रधान माना गया । वे गणाचार्य और वाचनाचार्य दोनो मे से हुए है।
हिमवंत की स्थविरावलि के अनुसार वाचक-वश या विद्याधर-वश की परम्परा इस प्रकार है४० । (१) आचार्य सुहस्ती (२) आर्य बहुल और वलिसह (३) आचार्य ( उमा ) स्वाति (४) आचार्य श्यामाचार्य (५) आचार्य सांडिल्य या स्कन्दिल (वि० स० ३७६ से ४१४ तक युग-प्रधान) (६) आचार्य समुद्र (७) आचार्य मगुसूरि (८) आचार्य नन्दिलसूरि (E) आचार्य नागहस्तीसूरि (१०) आचार्य रेवतिमित्र (११) आचार्य सिंहसूरि (१२) आचार्य स्कन्दिल ( वि० स० ८२६ वाचनाचार्य ) (१३) आचार्य हिमवन्त क्षमाश्रमण (१४) आचार्य नागार्जुनसूरि (१५) आचार्य भूतदिन्न (१६) आचार्य लोहित्यमूरि (१७) आचार्य दुष्यगणी ( नन्दी सूत्र मे इतने ही नाम है ) (१८) आचार्य देववाचक ( देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण ) (१६) आचार्य कालिकाचार्य ( चतुर्थ) (२०) आचार्य सत्यमित्र (अन्तिम पूर्वविद् )