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जैन परम्परा का इतिहास
[३३ अवीर हो जाते है। अधीर को कष्ट सहन करना पडता है, धीर कष्ट को सहते है।
साधना का मार्ग इससे और आगे है । वहाँ कष्ट निमत्रित किये जाते है। साधनाशील उन्हें अपने भवन का दृढ स्तम्भ मानते है । कष्ट आने पर साधना का भवन गिर न पडे, इस दृष्टि से वह पहले ही उसे कण्टो के खभो पर खडा करता है । जो जान-बूझ कर कण्टो को न्यौता दे, उसे उनके आने पर अरति और न आने पर रति नही हो सकती। अरति और रति-ये दोनो साधना की बाधाएँ है। भगवान् महावीर इन दोनों को पचा लेते थे। वे मध्यस्थ थे।
मध्यस्थ वही होता है, जो अरति और रति की ओर न झुके ।
भगवान् तृण-स्पर्श को सहते । तिनको के आसन पर नगे बदन बैठते और लेटते और नगे पैर चलते तब वे चुभते । भगवान् उनकी चुभन से घबरा कर वस्त्र-धारी नही वने।
___ भगवान् ने गीत-स्पर्श सहा। शिगिर मे जव ठण्डी हवाए फुकारें मारती लोग उनके स्पर्शमात्र से काँप उठते, दूसरे साधु पवन-शून्य (निर्वात ) स्थान की खोज मे लग जाते और कपड़ा पहनने की बात सोचने लगा जाते, कुछ तापस धूनी तप सर्दी से बचते, कुछ लोग ठिठुरते हुए किंवाड को बन्द कर विश्राम करते, वैसी कडी और असह्य सर्दी मे भी भगवान् शरीर-निरपेक्ष होकर खुले वरामदो और कभी-कभी खुले द्वार वाले स्थानो में बैठ उसे सहते ।
भगवान् ने आतापनाएं ली । सूर्य के सम्मुख होकर ताप सहा । वस्त्र न पहनने के कारण मच्छर व क्षुद्र जन्तु काटते । वे उसे समभाव से सह लेते।
भगवान् ने साधना की कसौटी चाही । वे वैसे जनपदो में गए, जहाँ के लोग जैन साधुओं से परिचित नही थे २२ । वहाँ भगवान् ने स्थान और आसन सम्वन्धी कष्टो को हसते-हसते सहा । वहाँ के लोग रूक्ष-भोजी थे, इसलिए उनमे क्रोध की मात्रा अधिक थी। उसका फल भगवान् को भी सहना पड़ा। भगवान् वहाँ के लिये पूर्णतया अपरिचित थे, इसलिए कुत्ते भी उन्हें एक ओर से दूसरी ओर सुविधापूर्वक नही जाने देते । बहुत सारे कुत्ते भगवान् को घेर लेते । तब कुछ एक व्यक्ति ऐसे थे, जो उनको हटाते। बहुत से लोग ऐसे थे