________________
जैन परम्परा का इतिहास
[३१
भगवान् अपने लिए बनाया हुआ भोजन नही लेते। वे शुद्ध भिक्षा के द्वारा अपना जीवन चलाते । माहार का विवेक करना अहिंसा और ब्रह्मचर्य - इन दोनो की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है । जीव-हिसा का हेतुभूत आहार जैसे सदोष होता है, वैसे ही ब्रह्मचर्य में बाधा डालने वाला आहार भी सदोप है। आहार की मीमासा मे अहिंसा-विशुद्धि के बाद ब्रह्मचर्य की विशुद्धि की ओर ध्यान देना सहज प्राप्त होता है । भगवान् आहार-पानी की मात्रा के जानकार थे। रस-गृद्धि से वे किनारा करते रहे । वे जीननवार मे नही जाते और दुर्भिक्ष भोजन भी नही लेते । उनने सरस भोजन का सकल्प तक नहीं किया। वे सदा अनासक्त और यात्रा-निर्वाह के लिए भोजन करते रहे । भगवान् ने अनाशक्ति के लिए शरीर को परिचर्या को भी त्याग रखा था। वे खाज नही खनते । आँख को भी साफ नही करते । भगवान् सग-त्याग की दृष्टि से गृहस्य के पात्र मे खाना नही खाते और न उनके वस्त्र ही पहनते ।
भगवान् का इण्टि-सयम अनुत्तर था । वे चलते समय इधर-उधर नही देखते, पीछे नही देखते, तुलाने पर भी नहीं बोलते, सिर्फ मार्ग को देखते हुए चलते ।
भगवान् प्रकृति-विजेता थे । वे सर्दी मे नगे वदन घूमते । सर्दी से डरे बिना हाथो को फैला कर चलते । भगवान् अप्रतिवन्ध विहारी थे, परिव्राजक थे । बीचवीच मे शिल्प-गाला, सूना घर, झोपडी, प्रपा, दुकान, लोहकारशाला, विश्राम गृह, आराम-गृह, श्मशान, वृक्ष-मूल आदि स्थानो मे ठहरते । इस प्रकार भगवान् वारह वर्ष और साढे छह मास तक कठोर चर्या का पालन करते हुए आत्मसमाधि में लीन रहे । भगवान् सावना-काल में समाहित हो गए। वे अपने-आप मे समा गए । भगवान् दिन-रात यतमान रहते । उनका अन्त करण सतत क्रियागील या आत्मान्वेपी हो गया।
भगवान अप्रमत्त वन गए । वे भय और दोपकारक प्रवृत्तियो से हट सतत जागरूक बन गए।
ध्यान करने के लिए समावि ( आत्म-लीनता या चित्त-स्वास्थ्य ), यतना और जागरूकता--ये सहज-अपेक्षित है। भगवान् ने आत्मिक वातावरण को ध्यान के अनुकूल बना लिया। वाहरी वातावरण पर विजय पाना व्यक्ति के