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जैन परम्परा का इतिहास
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भवगान् प्रहर- प्रहर तक किसी लक्ष्य पर आँखे टिका ध्यान करते । उस समय गांव के बाल-बच्चे उबर से आ निकलते और भगवान् को देखते ही हल्ला मचाते, चिल्लाते । फिर भी वे स्थिर रहते । वे ध्यान- लीन थे ।
भगवान् को प्रतिकूल कण्टो की भांति अनुकूल कण्ट भी सहने पडते भगवान् जव कभी जनाकीर्ण वस्ती में ठहरते, उनके सौन्दर्य से ललचा अनेक ललनायें उनका प्रेम चाहती । भगवान् उन्हें सावना की बावा मान उनसे परहेज करते । वे स्त्र-प्रवेगी ( आत्म-लीन ) थे ।
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तावना के लिए एकान्तवास और मोन—ये आवश्यक है । जो पहले अपने को न साधे, वह दूसरो का हित नही साध सकता । स्वय अपूर्ण पूर्णता का मार्ग नहीं दिखा सकता ।
भगवान् गृहस्थो से मिलना-जुलना छोड़ ध्यान करते, पूछने पर भी नही वोलते । लोग घेरा डालते तो वे दूसरी जगह चले जाते ।
कई आदमी भगवान् का अभिवादन करते । फिर भी वे उनसे नही बोलते । कई आदमी भगवान् को मारते-पीटते, किन्तु उन्हें भी वे कुछ नही कहते । भगवान् वैसी कठोरचर्या - जो सबके लिए सुलभ नही हे, मे रम रहे थे ।
भगवान् असह्य कष्टो को सहते । कठोरतम कण्टो की वे परवाह नही करते । व्यवहार-दृष्टि से उनका जीवन नीरम था । वे नृत्य और गीतो मे जरा भी नही ललचाते | दण्ड-युद्ध, मुष्ठि-युद्ध आदि लडाइयाँ देखने को उत्सुक भी नही होते ।
सहज आनन्द और आत्मिक चेतन्य जागृत नही होता, तब तक बाहरी उपकरणों के द्वारा आमोद पाने की चेष्टा होती है । जिनके चैतन्य का पर्दा खुल जाता है, सहज सुख का स्रोत फूट पडता है - वे नीरस होते ही नही । वे सदा समरन रहने है । बाहरी माचनो के द्वारा अन्तर के नीरस भाव को सरस बनाने का यत्न करनेवाले भले ही उसका मूल्य न आक सकेँ ।
भगवान् स्त्री-कथा, भक्त कथा, देश कथा और राज कथा में भाग नही लेते | उन्हें मध्यस्थ भाव से टाल देते । ये सारे कष्ट अनुकूल और प्रतिकूल, जो साधना के पूर्ण विराम है, भगवान् को लक्ष्य च्युत नही कर सके ।