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जैन परम्परा का इतिहास
उपलब्ध -
वेदों का अस्तित्व ५ हजार वर्ष प्राचीन माना जाता है । साहित्य श्रीकृष्ण के युग का उत्तरवर्ती है । इस साहित्यिक उपलब्धि द्वारा कृष्ण-युग तक का एक रेखा-चित्र खीचा जा सकता है । उससे पूर्व की स्थिति सुदूर अतीत में चली जाती है ।
छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक गुरु घोर आंग - रस ऋषि थे १२ ।
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जैन आगमो के अनुसार श्रीकृष्ण के आध्यात्मिक गुरु बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि थे 13 । घोर आंगिरस ने श्रीकृष्ण को जो धारणा का उपदेश दिया है, वह विचार जैन- परम्परा से भिन्न नही है । तू अक्षित-अक्षय है, अच्युतअविनाशी है और प्राण- सशित---अतिसूक्ष्मप्राण हैं । इस त्रयो को सुन कर श्रीकृष्ण अन्य विद्याओ के प्रति तृष्णा-हीन हो गए १४ । वेदो में आत्मा की स्थिर मान्यता का प्रतिपादन नही है । जैन दर्शन आत्मवाद की भित्ति पर ही अवस्थित है ५ । संभव है अरिष्टनेमि ही वैदिक साहित्य में आंगिरस के रूप मे उल्लिखित हुए हो अथवा वे अरिष्टनेमि के ही विचारो से प्रभावित कोई दूसरे व्यक्ति हो ।
कृष्ण और अरिष्टनेमि का पारिवारिक सम्बन्ध भी था । अरिष्टनेमि समुद्रविजय और कृष्ण वसुदेव के पुत्र थे । समुद्रविजय और वसुदेव सगे भाई थे । कृष्ण ने अरिष्टनेमि के विवाह के लिए प्रयत्न किया ६ 1 अरिष्टनेमि की दीक्षा के समय वे उपस्थित थे । ७ । राजिमती को भी दीक्षा के समय मे उन्होने भावुक शब्दो मे आशीर्वाद दिया १८ ।
प्रव्रजित हुई २० | कृष्ण के पुत्र
कृष्ण के प्रिय अनुज गजसुकुमार ने अरिष्टनेमि के पास दीक्षा ली। कृष्ण की पत्नियां अरिष्टनेमि के पास I अरिष्टनेमि के और अनेक पारिवारिक लोग अरिष्टनेमि के शिष्य बने २ १ और कृष्ण के वार्तालापो, प्रश्नोत्तरी और विविध चर्चाओ के अनेक उल्लेख मिलते है २ 1
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वेदो में कृष्ण के देव रूप की चर्चा नही है । छान्दोग्य उपनिषद् मे भी कृष्ण के यथार्थ रूप का वर्णन है २३ । पौराणिक काल मे कृष्ण का रूप - परिवर्तन कृष्ण के यथार्थ रूप का होता है । वे सर्व- शक्तिमान् देव बन जाते है ।