________________
2- छह प्रकार की संज्ञा 1. आहारसंज्ञा, 2. भयसंज्ञा, 3. मैथुनसंज्ञा, 4. परिग्रहसंज्ञा, 5. लोकसंज्ञा, 6. ओघसंज्ञा । यह चर्चा मुनि मनितसागरजी ने अपने ग्रन्थ में की है ।
3 - दस प्रकार की संज्ञा - 1. आहारसंज्ञा, 2. भयसंज्ञा, 3. मैथुनसंज्ञा, 4. परिग्रहसंज्ञा, 5. लोकसंज्ञा, 6. ओघसंज्ञा, 7. क्रोधसंज्ञा, 8. मानसंज्ञा, 9 मायासंज्ञा, 10. लोभसंज्ञा । ' 4- सोलह प्रकार की संज्ञा 1. आहारसंज्ञा, 2. भयसंज्ञा, 3. मैथुनसंज्ञा, 4. परिग्रहसंज्ञा, 5. लोकसंज्ञा, 6. ओघसंज्ञा, 7. क्रोधसंज्ञा, 8. मानसंज्ञा, 9. मायासंज्ञा, 10. लोभसंज्ञा, 11. मोहसंज्ञा, 12 सुखसंज्ञा, 13. दुःखसंज्ञा, 14. विचिकित्सा, 15. शोकसंज्ञा, 16. धर्मसंज्ञा । 19
20
उपर्युक्त वर्गीकरण के अलावा धवला में एक क्षीणसंज्ञा " भी कही गई है। आहारादि चारों संज्ञाओं के अभाव को क्षीणसंज्ञा कहते हैं । यहाँ संज्ञा उनके अभाव या अनावश्यकता की अन्तश्चेतना है ।
आचारांगनिर्युक्ति में मूलतः संज्ञा के द्रव्य और भाव-रूप दो भेद किए गए हैं। 21 सचित्, अचित् और मिश्र के भेद से द्रव्यसंज्ञा के तीन प्रकार हैं। ज्ञान और अनुभव के भेद से भावसंज्ञा के दो प्रकार हैं । ज्ञानसंज्ञा के मति, श्रुत आदि पांच भेद हैं। अनुभवसंज्ञा के सोलह भेद बतलाए हैं।
यहाँ, द्रव्यसंज्ञा में योग के कारण कर्मवर्गणा के पुद्गल, जो व्यक्ति - विशेष से बंध जाते हैं, वे सचित् और मिश्र दोनों हो सकते हैं। उनके परिणामस्वरूप जो भावना जाग्रत होती है, वह द्रव्यसंज्ञा है । जो कर्म से नहीं बंधते, वे अचित् हैं ।
सत्ताणं सन्नाओं आसंसारं समग्गाणं । । प्रवचनसारोद्धार, 923, संज्ञाद्वार 144
स्थानांगसूत्र, 10 / 105
प्रज्ञापना पद, 8
प्रवचन सारोद्धार, गाथा 924, संज्ञाद्वार 144
19 अभिधान राजेन्द्र खण्ड - 7, पृ. 301, आचारांगनिर्युक्ति-39
20 खीण सण्णा वि अत्थि " ( धवला पृ. 419 / 1 )
'आचारांगनिर्युक्ति, गाथा - 38, 39 (राजेन्द्र अभिधान कोश भाग-7, पृ. 301)
12
18 1)
21
2)
3)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org