Book Title: Jain Darshan Me Tattva Aur Gyan
Author(s): Sagarmal Jain, Ambikadutt Sharma, Pradipkumar Khare
Publisher: Prakrit Bharti Academy
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में स्वीकार किया गया है । यह स्पष्ट है कि जैन परम्परा में उमास्वामि के काल तक, काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं - इस प्रश्न को लेकर मतभेद था । इस प्रकार जैन आचार्यों में तृतीय-चतुर्थ शताब्दी तक काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के सम्बन्ध में दो प्रकार की विचारधाराएँ चल रही थीं । कुछ विचारक काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते थे । तत्त्वार्थसूत्र का भाष्यमान पाठ 'कालश्चेत्येके' का निर्देश करता है। इससे भी यह सिद्ध होता है कि कुछ विचारक काल को भी स्वतन्त्र द्रव्य मानने लगे थे । लगता है कि लगभग पाँचवी शताब्दी में आकर काल को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार कर लिया गया था और यही कारण था कि सर्वार्थसिद्धिकार ने 'कालश्चेत्येके' सूत्र के स्थान पर 'कालश्च' इस सूत्र को मान्य किया था । जब श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य मान लिया गया, तो अस्तिकाय और द्रव्य शब्दों के वाच्य विषयों में एक अन्तर आ गया। जहाँ अस्तिकाय के अन्तर्गत जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल ये पाँच ही द्रव्य माने गये, वहाँ द्रव्य की अवधारणा के अन्तर्गत जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल ये षट्द्रव्य माने गये । वस्तुतः अस्तिकाय की अवधारणा जैन परम्परा की अपनी मौलिक और प्राचीन अवधारणा थी । उसे जब वैशेषिक दर्शन की द्रव्य की अवधारणा के साथ स्वीकृत किया गया, तो प्रारम्भ में तो पाँच अस्तिकायों को ही द्रव्य माना गया किन्तु जब काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में मान्यता प्राप्त हो गई तो द्रव्यों की संख्या पाँच से बढ़कर छह हो गई । चूँकि आगमों में कहीं भी अस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत काल की गणना नहीं थी अतः काल को अनस्तिकाय वर्ग में रखा गया और यह मान लिया गया कि काल जीव और पुद्गल के परिवर्तनों का निमित्त है और कालाणु तिर्यक् प्रदेश प्रचयत्व से रहित हैं अतः काल अनस्तिकाय है । इस प्रकार द्रव्यों के वर्गीकरण में सर्वप्रथम दो प्रकार के वर्गीकरण बने - 1. अस्तिकाय द्रव्य और 2. अनस्तिकाय द्रव्यं । अस्तिकाय द्रव्यों के वर्ग के अन्तर्गत जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल इंन पाँच द्रव्यों को रखा गया और अनस्तिकाय वर्ग के अन्तर्गत काल को रखा गया। आगे चलकर द्रव्यों के वर्गीकरण का आधार चेतना - लक्षण और मूर्त्तता लक्षण को भी माना गया । चेतना - लक्षण की दृष्टि से जीव को चेतन द्रव्य और शेष पाँच-धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल को अचेतन द्रव्य कहा गया । इसी प्रकार मूर्त्तता - लक्षण की अपेक्षा से पुद्गल को मूर्त्त द्रव्य और शेष पाँच - जीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल को अमूर्त्त - द्रव्य माना गया। इस प्रकार द्रव्यों के वर्गीकरण की तीन शैलियाँ अस्तित्त्व में आई । जिन्हें हम निम्न सारणियों व आधार पर स्पष्टतया समझ सकते हैं -
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जैन दर्शन में तत्त्व और ज्ञान