Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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संस्कृति के तत्त्व एवं ज्ञाताधर्मकथांग पक्ष को भी समान महत्व देते हुए आचार और विचार के समन्वय-समानता को संस्कृति माना है। आचार्य तुलसी संस्कृति को शाश्वत मानते हैं। उन्होंने संस्कृति को कोरी आध्यात्मिकता या कोरी भौतिकता के सांचे में ढालने का प्रयास नहीं किया है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि संस्कृति अनवरत प्रवाहमान रहने वाली सरिता के समान गतिमान रहती है। ज्ञान और कर्म दोनों के प्रकाशपुंज का नाम संस्कृति है। जीवन रूपी विटप के पुष्प के रूप में संस्कृति का परिचय दिया जा सकता है। संस्कृति जीवन विकास की युक्ति का प्रकट रूप है। संस्कृति के सौरभ एवं सौन्दर्य में ही सम्पूर्ण राष्ट्रीय जीवन का यश और सौन्दर्य निहित है। संस्कृति जीवन का पर्याय ही नहीं अपितु वह तो जीवन की कुंजी है। वास्तव में संस्कृति किसी व्यक्ति विशेष से संबंधित न होकर सारे समुदाय, समाज और राष्ट्र से सम्बन्धित होती है।
संस्कृति समाज के प्रत्येक पहलू में व्याप्त रहती है। प्रत्येक समाज को कुछ न कुछ आनुवांशिक रूप में जो भी अपने पूर्ववर्ती लोगों से अर्जित होता ही है। संस्कृति मानवीय व्यक्तित्व की वह विशेषता है जो उस व्यक्तित्व को एक विशिष्ट अर्थ में महत्वपूर्ण बनाती है।
संस्कृति की विचारधारा को और अधिक स्पष्ट एवं ग्राह्य बनाने के लिए इसके अर्थ और स्वरूप की जानकारी के साथ इसकी विशेषताओं का निरूपण अपरिहार्य हो जाता है। उपर्युक्त विवेचन के परिणामस्वरूप संस्कृति की प्रमुख विशेषताएँ जो हमारे समझ में आती हैं, उनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार हैसंस्कृति की विशेषताएँ
संस्कृति की विशेषताओं को दो भागों में बाँटना स्पष्टता की दृष्टि से श्रेयस्कर रहेगा
(अ) सामान्य विशेषताएँ
(ब) विशिष्ट विशेषताएँ (भारतीय संस्कृति के संदर्भ में) सामान्य विशेषताएँ
ऐसी विशेषताएँ जो सभी संस्कृतियों में विद्यमान रहती हैं, उन्हें हम सामान्य विशेषताओं की श्रेणी में शामिल कर सकते हैं। संस्कृति की कतिपय
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