Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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संस्कृति के तत्त्व एवं ज्ञाताधर्मकथांग अर्थात् ब्राह्मण मानव शरीर के मुख से, क्षत्रिय बाहु से, वैश्य पेट से तथा शूद्र पैरों की उपमाओं से परिचित कराए गए हैं। ब्राह्मण को बुद्धि तथा शिक्षा प्रतीक माना गया, क्षत्रियों को शक्ति का प्रतीक, वैश्यों को भरण-पोषण तथा शूद्रों का सम्पूर्ण समाज की सेवा का दायित्व सौंपा गया है। जैनागमों में भी वर्णाश्रम व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि व्यक्ति कर्म से ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होता है ।
कम्मुणा बम्भणो होई, कम्मुणा होई खत्तिओ । इसा कम्मुणा होइ, सुद्दो हवइ कम्मुणा । ।
16. आश्रम व्यवस्था 74
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भारतीय दर्शन में मनुष्य की आयु 100 वर्ष स्वीकार कर उसे चार आश्रमों में विभक्त किया गया है । ये आश्रम इस प्रकार हैं- ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम । प्रत्येक के लिए 25-25 वर्ष नियत किए गए हैं। आश्रम व्यवस्था को व्यक्ति की आयु के अनुसार नियत किया गया है तथा इसमें पूर्ण वैज्ञानिकता दृष्टिगोचर होती है
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ब्रह्मचर्याश्रम में अध्ययन, गृहस्थाश्रम में गृहस्थ की सेवा, वानप्रस्थाश्रम समाज एवं परिवार से दूर रहकर साधना को महत्व दिया गया, वहीं संन्यासाश्रम में सभी बंधनों से छूटकर जीवन का आधार साधना को स्वीकार किया गया है जो कि जीवन का अंतिम और चरम लक्ष्य है ।
आश्रम व्यवस्था का निर्धारण व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक स्थिति को ध्यान में रखकर बड़े ही वैज्ञानिक ढंग से किया गया है।
जैनागमों में आश्रम व्यवस्था का स्पष्ट उल्लेख तो नहीं मिलता लेकिन कथावस्तु के आधार पर आश्रम व्यवस्था का अनुमान लगाया जा सकता है यानी उस समय आश्रम व्यवस्था किसी न किसी रूप में विद्यमान अवश्य थी । 17. विविधता में एकता 75
भारत एक विराट् राष्ट्र है। इसकी भौगोलिक सीमाएँ दूर-दूर तक फैली हैं अतः यहाँ सहस्रों विभिन्नताएँ पाई जाती हैं । ये विभिन्नताएँ धर्म, जाति - प्रजाति, सम्प्रदाय, भाषा, संस्कृति, भौगोलिक रचना एवं राजनैतिक दृष्टि से भी परिलक्षित होती हैं लेकिन भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है कि उसने इन सभी विभिन्नताओं के होते हुए भी उसमें एकता बनाए रखी है। इन सभी विभिन्नताओं
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