Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
ज्ञाताधर्मकथांग में सामाजिक जीवन कि जब मेघकुमार कलाचार्य से बहत्तर कलाएँ सीखकर लौटा तो उसके मातापिता ने उसे विवाह योग्य जानकर उसका विवाह करने का निश्चय किया। 157 12. पाणिग्रहण संस्कार
भारतीय संस्कृति में विवाह को एक धार्मिक संस्कार मानते हुए अनिवार्य माना गया है। जैन पुराणों के अनुसार भोगभूमिकाल में स्त्री-पुरुषों का युगल साथ-साथ उत्पन्न होता था, साथ-साथ भोग भोगने के उपरान्त एक युगल को जन्म देकर साथ-साथ मृत्यु को प्राप्त करता था | 158
'विवाह' शब्द ‘वि' उपसर्गपूर्वक 'वह्' धातु एवं ' धञ' प्रत्यय से निष्पन्न होता है । 159 इसका अर्थ है- गृहस्थाश्रम के कर्त्तव्यों का विशेष रूप से वहन करना, जिम्मेदारी निभाना । इसका पर्यायवाीच शब्द लग्न है। जिसका तात्पर्य हैपति-पत्नी दोनों का एक-दूसरे से संलग्न होना, मिलना, लीन होना। पति और पत्नी अर्थात् दम्पत्ति के प्रेममय मिलन का नाम ही 'लग्न' है। (आदर्श ग्रहस्थाश्रम, पृ. 13)
विवाह का सम्बन्ध स्थापित करने में वर-वधू के कुल का निर्धारण सबसे पहले किया जाता था। उत्तमकुल और परिवार का होना वर-वधू के निर्वाचन में आवश्यक माना जाता था । ज्ञाताधर्मकथांग में मेघकुमार के माता-पिता द्वारा मेघकुमार के युवा होने पर अपने कुल के समान श्रेष्ठ राजकुलों की आठ कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण संस्कार करवाने का उल्लेख मिलता है । 16° इसी प्रकार थावच्चापुत्र का विवाह भी इभ्य कुल की बत्तीस कन्याओं के साथ होने का उल्लेख मिलता है । 161
इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि समाज में कुल और कुटुम्ब का महत्व निरन्तर बढ़ता गया, वस्तुतः कुल का निर्धारण प्रजनन के आधार पर होता था और यह माना जाता था कि सन्तानोत्पत्ति कुल और वंश के अनुरूप होती है। 1
ज्ञाताधर्मकथांग में वर-वधू का विवाह यौवन प्राप्ति के बाद यानी युवा होने और अध्ययन पूर्ण होने पर एवं मन से एक-दूसरे की इच्छा कर सकने में समर्थ होने पर ही किया जाता था । 162
प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों में विवाह के आठ प्रकारों का उल्लेख मिलता है, जो किसी न किसी रूप में समाज में प्रचलित रहे हैं, जैसे- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गान्धर्व, राक्षस एवं पैशाच विवाह आदि । 163
127