Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन देवेन्द्र अपने वस्त्रों में ग्रहण कर क्षीरसागर में प्रक्षिप्त कर देते हैं । 90 16. अंतिम संस्कार
यह मानव जीवन का अंतिम संस्कार है, इसे एक व्यक्ति की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र या निकट सम्बन्धी पूरा करते हैं।
इस शरीर को त्यागकर जो तीर्थंकर सिद्धावस्था में अवस्थित हो गए, उनके शरीर का अंतिम संस्कार, शक्रेन्द्र की आज्ञा से होता है। अग्निकुमार देव अग्नि की विकुर्वणा और वायुकुमार देव वायु की विकुर्वणा करते हैं। चिता पर शरीर भस्म होने पर मेघकुमार देव उसे क्षीर सागर के जल से शान्त कर देते हैं।
अंतिम स्मृति चिह्न के रूप में शक्रेन्द्र, ईशानेन्द्र द्वारा क्रमशः दायीं-बांयी ऊपर की दाढ़, चमरेन्द्र, बलीन्द्र द्वारा क्रमशः दायीं-बांयी नीचे की दाढ़ और अन्य देवों द्वारा अन्यान्य अंगोपांग की अस्थियाँ ग्रहण करने की परम्परा थी। तीर्थंकर मल्ली197, राजा जितशत्रु, अमात्य सुबुद्धि एवं तैतलिपुत्र, द्रौपदी व सभी साध्वियाँ जो पर्वत पर संथारा नहीं करते हैं उनका अंतिम (दाह) संस्कार होता है, अरिष्टनेमि94 के अंतिम संस्कार का इसी रूप में वर्णन मिलता है । मेघकुमार, पाण्डव आदि ने दो पहाड़ों पर जाकर संथारा किया अत: उनका अंतिम संस्कार नहीं किया जाता है।
धन्य सार्थवाह अपने पुत्र देवदत्त के मृत शरीर को अग्नि संस्कार के लिए श्मशान घाट ले जाता है। 7 इसी प्रकार मृत दारिका के पीछे राजा कनकरथ198
और धन्य सार्थवाह'११ मृतक के पीछे किए जाने वाले अनेक लौकिक कार्य संपादित करते हैं । इन लौकिक कार्यों का विस्तृत विवेचन ज्ञाताधर्मकथांग में नहीं मिलता है।
संयमी अवस्था में शरीर साधना का साधन था, निष्प्राण होने के बाद शेष सब साधु परिनिर्वाण प्राप्त मुनि की स्मृति में माध्यस्थ भाव की पुष्टि के लिए कायोत्सर्ग करते हैं । अन्तर्मुहुर्त बाद उस देह को शेष साधु गृहस्थों को सौंप देते हैं। गृहस्थ लोक परम्परा के अनुरूप ही अंतिम संस्कार करते हैं। उसके निश्रा में जितने भी पात्र-उपकरण आदि होते हैं, शेष साधु इन्हें ग्रहण कर गुरु के सामने उपस्थित हो जाते हैं। संयमी की स्मृति में प्रमोदभाव के साथ उसके गुणों का स्मरण किया जाता है। ज्ञाताधर्मकथांग में मुनिमेघ2००, आर्या पोट्टिला27, धर्मरूचि अणगार202, द्रौपदी203 व पुण्डरीक के प्रसंग इसी तथ्य को पुष्ट करते हैं।
130