Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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ज्ञाताधर्मकथांग में शिक्षा करते समय विनयपूर्वक अपने आसन से उठ जाते और हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि करते फिर अत्यन्त अनुशासित और विनयपूर्वक ढंग से गुरु के समक्ष अपनी जिज्ञासा रखते। अर्हत् अरिष्टनेमि का शिष्य (श्रमणोपासक) कृष्ण त्रिखण्डाधिपति था लेकिन फिर भी उसने विनयपूर्वक उनका वंदन-नमस्कार किया।2 शिष्य की सारी सुविधाओं का प्रबन्ध करना गुरु का धर्म था अतः अनेक शिष्य गुरु के स्नेह तथा सद्व्यहार से अपने घर तक को भूल जाते थे तथा आजीवन गुरु के साथ रहते थे।193
आचारांगसूत्र में कहा गया है कि विद्यार्थी और शिक्षक का सम्बन्ध तभी मधुर रह सकता है, जब वह सम्बन्ध स्नेह, ममता और निःस्वार्थ भाव पर अवलम्बित हो। जैन ग्रंथकारों ने आचार्य की आज्ञा का पालन करना194, डांट पड़ने पर भी चुपचाप सह लेना, भिक्षा में स्वादिष्ट भोजन न लेना, सूर्योदय से पूर्व उठकर शास्त्राभ्यास और गुरु का अभिवादन करना, रात्रि के तीसरे प्रहर में अल्प निद्रा लेना व कम भोजन करना विद्यार्थी के आवश्यक नियम बतलाए हैं।95 योग्य छात्र वही है जो अपने आचार्य के उपदेशों पर पूर्ण ध्यान देता है। वह प्रश्न कर अर्थ को समझने के लिए वीतराग की चर्चा करता है। कालिदास ने गुरु शिष्य के पारस्परिक सम्बन्ध को 'गुरुवो गुरु प्रियम' कहा है।97 गुरु-शिष्य सम्बन्धों की प्रगाढ़ता व्यक्त करते हुए आपस्तम्बगृहसूत्र में कहा गया है कि गुरु की त्रुटियों को शिष्य अत्यन्त विनयपूर्वक एकान्त में उसे बताता था।98 गुरु की शिष्य के प्रति सदा अभिन्नता रहती थी।99 पंथक नामक शिष्य ने गुरु शैलक के साथ अभिन्नता बनाए रखी।20 प्रायः शिष्य आचार्य को ब्रह्मा की मूर्ति के समान मानता था। आचार्य के समीप आने वाले सभी शिष्य अतिथि के समान थे। ये शिष्य अपने आचार्य की देवता के रूप में सेवा करते थे। कभी-कभी इन सेवक शिष्यों में से कुछ शिष्य मन्द बुद्धि के भी होते थे, किन्तु आचार्य उनकी सेवा और विनम्रता से प्रसन्न होकर उन्हें भी ज्ञानार्जन कराता था।02
अनुशासन-व्यवस्था
शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को निर्बाध गति से संचालित करने के लिए सुदृढ़ अनुशासन व्यवस्था अनिवार्य है।
प्राचीनकाल में गुरु शिष्यों को शिल्प में निपुण बनाने के लिए विविध प्रकार से उपालम्भ, ताड़ना और तर्जना देते थे। राजकुमार भी इसके अपवाद
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