Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन वचनदुष्प्रणिधान, कायदुष्प्रणिधान, स्मृत्यकरण, अनवस्तितता। (2) देशावकाशिकव्रत
इस व्रत में श्रावक प्रतिज्ञा करता है कि मैं अमुक सीमा-क्षेत्र-भूभाग से आगे बढ़कर कोई प्रवृत्ति नहीं करूंगा। जितने क्षेत्र की मर्यादा की जाती हे, कर्ता उसके बाहर नहीं जाता, किसी को उसके बाहर से बुलाता भी नहीं और न ही उस क्षेत्र के बाहर किसी को भेजता ही है। वह क्षेत्र के बाहर से लाई गई वस्तु का उपयोग भी नहीं करता। तात्पर्य यह है कि निर्धारित मर्यादा के बाहर वह किसी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं करता। इस व्रत के भी पाँच अतिचार हैंआनयन प्रयोग : मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु मंगाना। प्रेष्य प्रयोग : मर्यादित क्षेत्र से बाहर कोई वस्तु भेजना। शब्दानुपात : जिस क्षेत्र में स्वयं न जाने का नियम ग्रहण किया
हो, वहाँ संदेशादि शब्द-संकेतों के माध्यम से कार्य
करना। रूपानुपात
मर्यादित क्षेत्र के बाहर कोई वस्तु आदि भेजकर
उसके माध्यम से काम करना। पुद्गल-प्रेक्षप : मर्यादित क्षेत्र से बाहर के किसी व्यक्ति का ध्यान
येनकेनप्रकारेण अपनी ओर आकर्षित करना। (3) पौषधोपवपासव्रत
ज्ञाताधर्मकथांग में पौषध व पौषधशाला का उल्लेख कई बार आया है। 39 'पौषध' का आशय है- धर्मस्थान में रहना अथवा धर्माचार्यों के संग रहना। पौषधोपवास का अर्थ है- धर्मस्थान में रहकर उपवास रखना। पौषण का एक अन्यार्थ- 'पोषण' भी है। पौषधव्रत द्वारा आत्मा को पोषण प्राप्त होता है। इस व्रत में काया को निराहार रखकर आत्मा का तृप्त करने की व्यवस्था है। श्रावक इस व्रत को ग्रहणकर धर्मस्थानों में धर्मगुरुओं के सान्निध्य में धर्मचिन्तन करता है, वह तत्त्व जिज्ञासा, स्वाध्याय आदि में व्यस्त रहता है। आहार के साथ-साथ हिंसक प्रवृत्तियों, कायिक शृंगार, अब्रह्मचर्य आदि का पूर्ण रूप से त्याग करते हुए श्रावक इस व्रत के अधीन श्रमण के समान आठ प्रहर साधनाशील रहता है। पौषधव्रत के पाँच अतिचार हैंअप्रतिलेखित-दुष्प्रतिलेखित - पौषध हेतु उपयुक्त शय्या
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