Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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उपसंहार
इस अध्याय में ज्ञाताधर्मकथांग का द्वादशांगी में स्थान निर्धारण करने एवं इसके नामकरण पर विमर्श करने के साथ-साथ इसकी विषय सामग्री को भी प्रस्तुत किया गया है ।
अंग - साहित्य में ज्ञाताधर्मकथांग का छठा स्थान है। इसके दो श्रुत स्कंध हैं। प्रथम श्रुतस्कंध में ज्ञात यानी उदाहरण और द्वितीय श्रुतस्कंध में धर्मकथाएँ हैं, अतः इस आगम को 'णायाधम्मकहाओ' कहा जाता है। आलोच्य ग्रंथ में उदाहरणों व कथाओं के माध्यम से आत्म उन्नति का मार्ग, इस मार्ग के अवरोध और इन अवरोधों को दूर करने के उपायोग की सांगोपांग चर्चा की गई है। ये कथाएँ वाद-विवाद का विषय न होकर के उत्थान के लिए हैं। इनमें अनुभव का अमृत है । यह अमृतपान इस कथासागर में गोते लगाकर ही किया जा सकता है।
आज पाश्चात्य अपसंस्कृति हमारी सनातन संस्कृति को दूषित कर रही है । प्राचीन संस्कृति की प्रस्तुति से प्रेरणा लेकर ही अपसंस्कृति से विमुख हुआ जा सकता है। ज्ञाताधर्मकथांग में तत्कालीन संस्कृति की महक मौजूद है । प्रस्तुत कृति के 'संस्कृति के तत्त्व एवं ज्ञाताधर्मकथांग' नामक द्वितीय अध्याय में इसी महक को आम पाठक तक पहुँचाने का प्रयास किया गया है । ज्ञाताधर्मकथांग में वर्णित सामाजिक - जीवन, राज्यव्यवस्था, धार्मिक मतमतान्तर, आर्थिक जीवन, भौगोलिक स्थिति, शिक्षा, कला तथा विज्ञान आदि विषयों का संक्षिप्त विवेचन इस अध्याय में किया गया है । ज्ञाताधर्मकथांग में जहाँ सुखी पारिवारिक जीवन के सूत्र मिलते हैं, वहीं उत्तरदायी शासन व्यवस्था का उत्कर्ष भी दृष्टिगोचर होता है । समाज सेवा के विविध प्रसंग तत्कालीन संस्कृति को 'परहित सरिस धर्म नहीं भाई' की भावना के समीपस्थ प्रस्तुत करते हैं । कथाओं के माध्यम से जैन धर्म और दर्शन के विविध पहलुओं के साथ-साथ अन्य धर्मों एवं मतों के सम्बन्ध में भी संक्षिप्त जानकारी दी गई है। श्रेणिक, मेघकुमार, धन्यसार्थवाह, थावच्चागाथापत्नी, राजा जितशत्रु, द्रुपद राजा व काली रानी आदि के अपार वैभव से तत्कालीन आर्थिक स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
इन कथाओं से स्पष्ट है कि गुरु-शिष्य सम्बन्ध तत्कालीन संस्कृति का उज्ज्वल पक्ष था । शिक्षा केवल सैद्धान्तिक ही नहीं व्यावहारिक भी थी । अमात्य सुबुद्धि द्वारा जलशुद्धि करवाने, मेघ द्वारा पूर्वभव में वन्य प्राणियों की रक्षा करने और धर्मरूचि अणगार द्वारा जहर के समान कटु तुम्बे का शाक उदरस्थ करने के प्रसंग तत्कालीन संस्कृति को 'अहिंसा परमोधर्म' से अनुप्राणित सिद्ध करने वाले
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