Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan

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Page 310
________________ ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन है। 4. रस-परित्याग तप स्वाद रहित आहार ग्रहण करना ही रस-परित्याग तप है। रस का अर्थ है प्रीति बढ़ाने वाला, जो भोजन में रूचि पैदा करता है अर्थात् उसमें आसक्ति के भाव पैदा करता है। घी, दूध, दही, तेल, मीठा और नमक- इन छः प्रकार के रसों के संयोग से भोजन स्वादिष्ट होता है तथा अधिक खाया जाता है। इनके अभाव में भोजन नीरस हो जाता है। इन्द्रिय विजय के लिए इनमें से किसी एक, दो या सभी रसों का त्याग करना रस परित्याग तप है। ज्ञाताधर्मकथांग में महाबल आदि राजा265 विभिन्न प्रकार के तप करते हुए रस परित्याग अर्थात् पाँच विगयों का त्याग करते हुए देखे जाते हैं। 5. कायक्लेश तप ___ यह तप शारीरिक निश्चलता एवं अप्रमत्ता प्राप्त करने में सहायक होता है। इस तप के लिए उग्र अर्थात् कठिन आसनों का अभ्यास किया जाता है, जिससे आत्मसुख की प्राप्ति होती है। __ ज्ञाताधर्मकथांग में मेघमुनि266 विभिन्न प्रकार के आसनों से इन्द्रिय विजयी/ आत्मनिष्ठ होने में सहायक होते हुए देखे जाते हैं। 6. प्रतिसंलीनता/विविक्त शय्यासन ब्रह्मचर्य, ध्यान, स्वाध्याय आदि की सिद्धि के लिए एकान्त स्थान पर शयन करना तथा आसन लगाना एवं अपनी इन्द्रियों का निग्रह करना ही प्रतिसंलीनता तप है। ये छहों तप बाह्य वस्तु की अपेक्षा के कारण तथा दूसरों द्वारा प्रत्यक्ष होने के कारण बाह्य तप कहलाते हैं। ज्ञाताधर्मकथांग में इन सभी प्रकार के तपों को अनेक पात्रों के द्वारा आसेवित करते हुए एवं अपने लक्ष्य तक पहुँचते हुए देखा जाता है। II. आभ्यन्तर तप छः प्रकार के आभ्यन्तर तप बताए गए हैं1. प्रायश्चित तप स्वयं द्वारा सम्पादित कार्यों तथा आचारगत दोषों की परिशुद्धि के लिए 309

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