Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन और ज्ञान में भेद है किन्तु निश्चयनय से आत्मा और ज्ञान में कोई भेद नहीं है । 9 अतः आत्मा का स्वरूप समझने के लिए ज्ञान का स्वरूप समझना बहुत आवश्यक है।
आगमों में ज्ञान सम्बन्धी जो विचारधाराएँ मिलती हैं वे बहुत प्राचीन हैं । संभवतः ये मान्यताएँ भगवान महावीर से पहले की हों। राजप्रश्नीय सूत्र में श्रमण शकुमार अपने मुख से कहते हैं - हम श्रमण निर्ग्रथ पाँच प्रकार के ज्ञान मानते हैं- आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केवलज्ञान ।°
ज्ञाताधर्मकथांग में यद्यपि ज्ञानमीमांसा का स्पष्ट स्वरूप तो नहीं मिलता है लेकिन ज्ञान के विभिन्न प्रकारों व उनके भेदों-प्रभेदों का नामोल्लेख मिलता है । ज्ञाताधर्मकथांग के संदर्भ में ज्ञान के विभिन्न प्रकारों का संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार है
1. गतिमान
जैन पारिभाषिकी में मननात्मक अवबोध को मतिज्ञान की संज्ञा दी गई है । उमास्वाति ने मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता एवं अभिनिबोध को एकार्थक बताया है ।"
इन्द्रियों एवं मन के द्वारा होने वाले इस ज्ञान को ज्ञाताधर्मकथांग में विभिन्न विशेषणों से संबोधित किया गया है । 2 अभयकुमार के व्यक्तित्व को विश्लेषित करते हुए कहा गया है- 'ईहापोह - मग्गण - गवेसण - अत्थसत्थमई विसारए 73 यानी ईहा, अपोह, मार्गणा, गवेषणा तथा चिन्तन में उसकी गति प्रखर थी ।
सूत्रकार ने मतिज्ञान के मूलतः दो भेद बताए हैं
(1) श्रुतनिश्रित - जो मतिज्ञान श्रुतज्ञान के पूर्वकालिक संस्कार के आधार से उत्पन्न होता है किन्तु वर्तमान में श्रुत निरपेक्ष होता है, वह श्रुतनिश्रित मतिज्ञान कहा जाता है। इसके चार प्रकार हैं
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(अ) अवग्रह- यह पहला ज्ञान है । इन्द्रिय और वास्तु का सम्बन्ध होते ही सामान्य अव्यक्त ज्ञान व्यंजनावग्रह है । व्यंजनावग्रह की अपेक्षा कुछ व्यक्त किन्तु जाति, गुण आदि की कल्पना से रहित अर्थ का ग्रहण अर्थावग्रह है ।
(ब) ईहा - अवगृहीतार्थ को विशेष रूप से जानने की ईच्छा ईहा है | S अवग्रह के बाद संशय होता है, संशय के बाद 'यह होना चाहिए' - इस प्रकार
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