Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन माता को 14 प्रकार के स्वप्न दिखाई पड़ते हैं। तीर्थंकर मल्ली की माता प्रभावती द्वारा चौदह स्वप्न देखने का उल्लेख ज्ञाताधर्मकथांग में आया है, ये चौदह स्वप्न हैं2-1. गज, 2. वृषभ, 3. सिंह, 4. अभिषेक, 5. पुष्पमाला, 6. चन्द्रमा, 7. सूर्य, 8. ध्वजा, 9. कुम्भ, 10. पद्मयुक्त सरोवर, 11, सागर, 12. विमान, 13. रत्नों की राशि, 14. धूम्ररहित अग्नि। तीर्थंकर कैसे बनते हैं?
तीर्थंकरत्व की उपलब्धि सहज नहीं है। हर एक साधक आत्म साधनाकर मोक्ष तो प्राप्त कर सकता है, पर तीर्थंकर नहीं बन सकता है। विश्वकल्याण की भावना से अनुप्राणित साधक जब लोककल्याण की सुदृढ़ भावना भाता है तभी तीर्थंकर जैसी क्षमता को प्रदान करने में समर्थ तीर्थंकर नामगोत्र कर्म' का बंध करता है। ज्ञाताधर्मकथांग में इस कर्मबंध के बीस कारण बतलाए गए है3- 1. अरिहन्त, 2. सिद्ध, 3. प्रवचन-श्रुतज्ञान, 4. गुरु-धर्मोपदेशक, 5. स्थविरजातिस्थविर, श्रुतस्थविर व पर्याय स्थविर, 6. बहुश्रुत तथा 7. तपस्वी- इन सातों के प्रति वत्सलता धारण करना यानी इनका यथोचित सत्कार-सम्मान करना, गुणोत्कीर्तन करना, 8. बारंबार ज्ञान का उपयोग करना, 9. दर्शन सम्यक्त्व की विशुद्धता, 10. ज्ञानादिक का विनय करना, 11. छः आवश्यक करना, 12. उत्तर गुणों और मूल गुणों का निरतिचार पालन करना, 13. क्षणलव यानी क्षण-एक लव प्रमाणकाल में भी संवेग, भावना एवं ध्यान का सेवन करना, 14. तप करना, 15. त्याग- मुनियों को उचित दान देना, 16. नया-नया ज्ञान ग्रहण करना, 17. समाधि- गुरु आदि को साता उपजाना, 18. वैयावृत्य करना, 19. श्रुत की भक्ति करना और 20. प्रवचन की प्रभावना करना। महाबलमुनि ने इन्हीं कारणों से तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया। ___तीर्थंकर चौंतीस प्रकार के अतिशय यानी वैशिष्ट्य से युक्त होते हैं। ज्ञाताधर्मकथांग में अतिशय शब्द का नामोल्लेख करते हुए अरिष्टनेमि के कुछेक अतिशयों का संकेत मात्र किया गया है। समवायांग में सभी चौंतीस अतिशयों का उल्लेख मिलता है
1. सिर के केश, दाढ़ी, मूंछ, रोम और नखों का मर्यादा से अधिक न बढ़ना, 2. शरीर का स्वस्थ एवं निर्मल रहना, 3. रक्त और मांस का गाय के दूध के समान श्वेत होना, 4. पद्मगंध के समान श्वासोच्छ्वास का सुगन्धित होना, 5. आहार और शौच क्रिया का प्रच्छन्न होना, 6. तीर्थंकर देव के आगे आकाश में
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