Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन अन्वेषण में अनेकान्त का कोई विकल्प नहीं है। एकान्त आग्रहपूर्ण दृष्टिकोण से सत्य के एक अंश को तो जाना जा सकता है, सम्पूर्ण सच्चाई को नहीं। पूर्ण सत्य को जानने के लिए अनेकान्त, अनाग्रही दृष्टिकोण अनिवार्य है। किसी भी पदार्थ, द्रव्य, तत्त्व, सत् को जानने के लिए अनेकान्त ही आधार है। इस तथ्य को ज्ञाताधर्मकथांग में बहुत ही सहजता के साथ प्रस्तुत किया गया है, अतः यहाँ अनेकान्त ही आधार है। इस तथ्य को ज्ञाताधर्मकथांग में बहुत ही सहजता के साथ प्रस्तुत किया गया है, अतः यहाँ अनेकान्त के हार्द को आसानी से समझा जा सकता है।
द्रव्य
आगमों में द्रव्य की सत् संज्ञा नहीं थी। जब अन्य दर्शनों में 'सत्' शब्द को समाविष्ट किया गया तो जैन दार्शनिकों के समक्ष भी प्रश्न उभरा कि सत् क्या है ? वाचक उमास्वाति ने कहा कि द्रव्य ही सत् है अर्थात् सत् द्रव्य लक्षणम्। सत् को परिभाषित करते हुए उन्होंने कहा- 'उत्पाद्व्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" यानी सत् वही होता है जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्ययुक्त हो तथा वही द्रव्य कहलाता है। उन्होंने द्रव्य की परिभाषा दी- 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम्।
जैन दर्शन के अनुसार हमारा ज्ञान जब संश्लेषणात्मक होता है तब द्रव्य उपस्थित रहता है और पर्याय गौण हो जाता है । जब ज्ञान विश्लेषणात्मक होता है तब पर्याय प्रधान एवं द्रव्य गौण हो जाता है। ज्ञाताधर्मकथांग में थावच्चापुत्र शुकपरिव्राजक को द्रव्य-पर्याय सम्बन्ध अनेकान्त के आलोक में समझता है।
ज्ञाताधर्मकथांग में संक्षेप में जीव-अजीव - इन दो तत्त्वों का विशेष तथा नव तत्त्वों का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष उल्लेख प्राप्त होता है। कोई भी व्यक्ति जीवअजीव आदि तत्त्वों को जानकर व श्रद्धाकर श्रावक बनता है। जितशत्रु राजा के संदर्भ में कहा गया है- "...........समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे (जाव उबलद्धपुण्णपावे आसव-संवर-निजर-किरिया-अहिगरण-बंध-मोक्खकुसले असहेजे.......)'' इस प्रकार ये तत्त्व संयम की आधारशिला हैं।
द्रव्य के विभिन्न भेदोपभेदों को तीन दृष्टियों से अग्रांकित रेखाचित्रों द्वारा प्रदर्शित किया जा सकता है।
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