Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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ज्ञाताधर्मकथांग में आर्थिक जीवन तेल-उद्योग
ज्ञाताधर्मकथांग में तेल के उपयोग शाक बनाने33, औषधि के रूप मे34, लेपन, विलेपन और मालिश135 के रूप में करने का उल्लेख मिलता है। इससे स्पष्ट है कि तेल उद्योग भी विकसित अवस्था में था। कुटीर-उद्योग
उपर्युक्त उद्योगों के अतिरिक्त कुछ कुटीर उद्योग भी प्रचलित थे। ज्ञाताधर्मकथांग में बांस की छाबड़ी136, सूप'37, फूलमालाएँ (मालाकार)138, विविध प्रकार के पंखों139 आदि का उल्लेख मिलता है, जो कुटीर उद्योगों की विद्यमानता के प्रमाण हैं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कृषि के साथ-साथ औद्योगिक विकास भी चरम पर था तथा इसके साए में कुटीर उद्योग भी पनप रहे थे। व्यापार-विनिमय
विनिमय आर्थिक जगत का केन्द्र बिन्दु है। लेन-देन, आदान-प्रदान अथवा एक वस्तु के बदले में दूसरी वस्तु लेना विनिमय कहा जाता है।
वस्तु विनिमय में कई प्रकार की व्यावहारिक कठिनाइयाँ आती थी, परिणामस्वरूप क्रय-विक्रय पद्धति अपनाई गई, जो व्यापार के रूप में प्रसिद्ध हो गई।
आगमकाल में कृषि के साथ-साथ व्यापार-विनिमय भी उन्नत अवस्था में था। व्यापारी
व्यापारियों को मुख्यतः दो भागों में बाँटा जा सकता है- (i) स्थानीय व्यापारी (ii) सार्थवाह । 40 स्थानीय व्यापारियों की तीन कोटियाँ थी- वणिक 41, गाथापति142 और श्रेष्ठी।43 ये गाँवों व नगरों में व्यापार करते थे। ये व्यापार के साथ-साथ धन के लेन-देन का व्यवसाय भी करते थे।144
असुरक्षित मार्गों की कठिनाइयों के कारण अकेले यात्रा करना संभव नहीं था, अतः 'सार्थ' बनाकर चलते थे। मिलकर यात्रा करने वाले समूह को 'सार्थ' कहा जाता था और 'सार्थ' का नेतृत्व करने वाला 'सार्थवाह' कहलाता था।45 ज्ञाताधर्मकथांग में उल्लेख मिलता है कि सार्थवाह यात्रा पर जाते समय अपना माल गाड़ी-गाड़े यानी छकड़ा-छकड़ी में भरकर ले जाते थे।146
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