Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन व्यवहारों की व्यावहारिक शिक्षा ग्रहण करता था। श्रवण, मनन और निदिध्यासन शिक्षा प्रक्रिया के तीन महत्वपूर्ण अंग थे। श्रवण के माध्यम से छात्र गुरु की वाणी का बाह्य स्वरूप ग्रहण करता, मनन के द्वारा इस स्वरूप के हार्द को पहचानता और निदिध्यासन से इसे आत्मा तक पहुँचाने का सार्थक प्रयास करता। ज्ञाताधर्मकथांग में मेघकुमार ने भगवान महावीर से धर्म के स्वरूप सम्बन्धी उपदेश को सुनकर और हृदय में धारण करके सम्यक् प्रकार से उसे अंगीकार किया। थावच्चापुत्र, मल्लीभवगती, तेतलिपुत्र व द्रौपदी आदि की कथाओं में भी श्रवण, मनन और निदिध्यासन के द्वारा शिक्षा ग्रहण करना निरूपित किया गया है।
जैन-शिक्षण की वैज्ञानिक शैली के पांच अंग थे- 1. वाचना, 2. पृच्छना, 3. अनुप्रेक्षा, 4. आम्नाय तथा 5. धर्मोपदेश ।
उपनिषद् में भी श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन- इन तीन प्रक्रियाओं का विवेचन मिलता है। महाभारत में कहा गया है कि श्रवण, ग्रहण, तर्क और परिप्रश्न द्वारा छात्र विषय को समझकर उसको स्मृत कर लेता था।
इस प्रकार शिक्षा व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन जाती थी। शिक्षार्थी का उपार्जित ज्ञान 'गधे का बोझ' नहीं था, जिसे आधुनिक विद्यार्थी परीक्षा-कक्ष में उतारकर अपनी पीठ हल्की कर लेते हैं।
चूंकि उस समय सम्पूर्ण शिक्षा मौखिक और स्मृति के आधार पर चलती थी इसलिए उसे याद रखने की दृष्टि से चुने हुए शब्दों में सूत्र रूप में कहा जाता था, जिससे शिक्षार्थी उसे ज्यों का त्यों स्मरण रख सकें। इसी कारण प्रारम्भिक साहित्य सूत्र रूप में मिलता है।
इसी प्रकार लौकिक दृष्टांतों या जीवन के विभिन्न प्रसंगों के साथ तुलना करके विषयवस्तु को प्रतिपादित किया जाता था।
ज्ञाताधर्मकथांग में भी विषयवस्तु को प्रतिपादित करने के लिए हाथी, धन्यसार्थवाह व विजयचोर'', मयूरी के अंडे'', कछुआ, शैलक, तूंबा', रोहिणी, काली आदि विभिन्न रूपकों व दृष्टांतों का सहारा लिया गया है। शिक्षण विषय को कथाओं के माध्यम से कहा जाता था, जिससे कथा प्रसंगों के साथ मूल वस्तु तत्त्व को याद रखना आसान हो जाता था। ज्ञाताधर्मकथांग के तो नाम से ही स्पष्ट है कि तत्कालीन शिक्षा-प्रणाली में 'कथा' अत्यन्त महत्वपूर्ण शिक्षण-प्रविधि थी।
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