Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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ज्ञाताधर्मकथांग में शिक्षा शिक्षा का लक्ष्य
शिक्षा के द्वारा ही मनुष्य की आन्तरिक शक्तियाँ उजागर होती है। अल्तेकर के अनुसार- "प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य सदाचार की वृद्धि, व्यक्तित्व का विकास, प्राचीन संस्कृति की रक्षा तथा सामाजिक एवं धार्मिक कर्तव्यों की शिक्षा देना था।"52 विष्णुपुराण में कहा गया है- 'सा विद्या या विमुक्तये' अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति मार्ग को प्रशस्त करती है। मुक्ति के लिए आंतरिक दैवी शक्तियों की अभिव्यक्ति आवश्यक है। इसलिए मनुष्य में अन्तर्निहित सर्वोत्तम उदात्त महनीय गुणों का विकास करना ही शिक्षा का परम लक्ष्य है।
ज्ञाताधर्मकथांग की विभिन्न कथाओं में महावीर, धर्मघोष स्थविर, अरिष्टनेमि व थावच्चापुत्र से क्रमशः मेघकुमार, धन्यसार्थवाह, थावच्चापुत्र व शुक परिव्राजक शिक्षा प्राप्त कर दीक्षा ग्रहण करते हैं और मुक्ति के मार्ग पर चरण न्यास करते हैं। इसी प्रकार मल्ली भगवती भी मुक्तिपथ पर आगे बढ़ती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि आलोच्य ग्रंथ ज्ञाताधर्मकथांग के अधिकांश पात्र मुक्ति की ओर सतत् प्रयत्नशील हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने शिक्षा का लक्ष्य आत्म-स्वातन्त्र्य लाभ माना है। आत्मोन्मुख करने वाली शिक्षा ही वास्तव में उपादेय है।
अथर्ववेद में शिक्षा का लक्ष्य श्रद्धा, मेधा, प्रज्ञा, धन, आयु और अमरत्व की प्राप्ति बतलाया गया है। विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती के लिए कहा गया है कि उसके लिए विविध व्रत हैं। उसका उदय सुख और शान्ति का दाता है। यह जीवन को मधुर बनाती है। सरस्वती की एक माता के रूप में प्रशंसा करते हुए कहा है कि सुख देने वाली, कल्याण करने वाली, सुंदर व दानी है। वह सभी मनोरथों को पूरा करती है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि शिक्षा का लक्ष्य व्यक्ति को उसके चरम लक्ष्य यानी मुक्ति की ओर अग्रसर करना और अन्ततः उसे उसके लक्ष्य तक पहुंचाना यानी मुक्ति प्रदान करना है।
अध्ययन-अध्यापन
आगमकाल में शिक्षा केवल मानसिक ही नहीं अपितु व्यावहारिक भी थी। शिक्षार्थी भौतिक जगत् के क्रियाकलापों, वैयक्तिक आचरण तथा सामाजिक
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