Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन अन्य विषय
उपर्युक्त विषयों के अलावा ग्यारह अंगों, चौदह पूर्वो का ज्ञान33, तस्कर विद्या, चोर विद्या34 व ताला खोलने की विद्या35 आदि विविध विषयों की शिक्षा भी दी जाती थी।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि छात्रों के पाठ्य विषय केवल ग्रंथों तक ही सीमित नहीं थे अपितु उन्हें व्यावहारिक शिक्षा भी दी जाती थी। पाठ्यक्रम का निर्धारण शिक्षा के परम लक्ष्य 'मुक्ति' को ध्यान में रखकर किया जाता था।
गुरु की अर्हताएँ
प्रागैतिहासिक काल से गुरु को सामाजिक विकास का नियंता माना जाता रहा है। समाज की आकांक्षाओं व आदर्शों को कार्यरूप में परिणित करने का महती उत्तरदायित्व गुरु को ही निभाना पड़ता है।
जगत् गुरु कहलाने वाले भारत ने सम्पूर्ण विश्व से अज्ञानरूपी अंधकार को नष्ट करने का प्रयास निरन्तर किया है, इसी कारण जब भी शिक्षा की चर्चा होती है तो हम अपने गुरुओं को आदर्श रूप में प्रतिष्ठित करते हैं। चाहे वह अध्यापन का विषय हो या चरित्र निर्माण अथवा ज्ञान के आविष्कार का, सभी क्षेत्रों में हमें गुरु की आवश्यकता पड़ती ही है। 'गुरु' का शाब्दिक अर्थ
'गुरु' शब्द की उत्पत्ति 'गृ' धातु में 'कु' और 'उत्व' करने से होती है।36
आचार्य पाणिनि के अनुसार भ्वादिगणीय 'गृ' सेचने धातु से गुरु शब्द निष्पन्न होता है।
तुदादिगणीय गृ-निगरणे' धातु से गुरु शब्द की सिद्धि होती है, जिसका अर्थ है- अज्ञानान्धकार विदारक। जैन वाङ्मय में गुरु शब्द का विवेचन करते हुए कहा है- 'गृणाति शास्त्रार्थमिति गुरुः' अर्थात् जो शास्त्रों के अर्थ को बताता है वह गुरु है।137
आवश्यक नियुक्ति में गुरु को परिभाषित करते हुए कहा है- 'गृणन्ति शास्त्रार्थमिति गुरवः, धर्मोपदेशादि दातारः इत्यर्थः ।' अर्थात् जो शास्त्रों के रहस्यों को बताते हैं और धर्म आदि के उपदेश प्रदान करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं।138 'गृणाति यथावस्थितः प्रवचनार्थमिति गुरुः' अर्थात् यथावस्थित पदार्थों के उपदेशक
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