Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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संस्कृति के तत्त्व एवं ज्ञाताधर्मकथांग भारतीय संस्कृति ने राष्ट्र और समाज को खण्ड-खण्ड होने से बचा लिया। यह भारतीय संस्कृति की उदारता रही कि उसने विभिन्न धर्मावलम्बियों के बीच सद्भाव रखते हुए विभिन्न संस्कृतियों को अपने में समन्वित कर लिया। भारतीय समाज एवं संस्कृति में समन्वय की महान शक्ति है और उसी शक्ति के बल पर अद्यतन भारतीय संस्कृति विद्यमान है।
समन्वय की इसी भावना पर अपनी सहमति प्रकट करते हुए डॉ. रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है
"समन्वय का उदाहरण चीटियाँ भी उपस्थित करती हैं, परन्तु भारत में समन्वय की प्रक्रिया चींटियों की नहीं, मधुमक्खियों की प्रक्रिया रही है। भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों से बना हुआ मधु है और उसके ऊपर यद्यपि आर्यों का लेबल बहुत स्पष्ट है, किन्तु आर्यों का महत्व उतना ही है जितना मधुनिर्माण में मधुमक्खियों का होता है।''48
समन्वय की इसी विशेषता का परिचय देते हुए पं. जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है
"ईरानी और यूनानी लोग, पार्थियन और वैक्ट्रिन लोग, सीथियन और हूण लोग, मुसलमानों से पहले आने वाले तुर्क और ईसा की प्रारंभिक सदियों में आने वाले ईसाई, यहूदी और पारसी, ये सब के सब, एक के बाद एक भारत में आए और उनके आने से समाज ने एक कम्पन्न का भी अनुभव किया, मगर अन्त में वे सब भारतीय संस्कृति के महासमुद्र में विलीन हो गए, उनका कोई अलग अस्तित्व नहीं बचा।''49 आज भी भारतीय संस्कृति विभिन्न धर्मों, सम्प्रदायों, जातियों व वर्णों को समन्वित किए हुए है। 5. धर्मोन्मुख संस्कृति ____भारतीय दर्शन में कभी भी हिन्दू, मुसलमान, जैन या बौद्ध के रूप में धर्म का प्रयोग नहीं हुआ। धर्म का वास्तविक स्वरूप वही है जिसे मनुष्य अपनाता है अथवा धारण करता है- 'धारयति इति धर्मः' अर्थात् जो धारण करने योग्य है अथवा जिसे धारण कर हम अपने जीवन को अनुशासित रूप में आगे बढ़ा सकें, उसे ही धर्म स्वीकार किया गया है। धर्म के चार द्वार हैं- क्षमा, संतोष, सरलता और नम्रता। इन सभी गुणों को धर्मोन्मुख भारतीय संस्कृति में देखा जा सकता है। गीता में श्रीकृष्ण मानव के कर्त्तव्य को ही धर्म के रूप में स्वीकार करते हैं।
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