Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
View full book text
________________
संस्कृति के तत्त्व एवं ज्ञाताधर्मकथांग 'भारतीय समाज एवं संस्कृति' में लिखा है- “अपने सुदीर्घ इतिहास में भारत के निवासियों ने एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था एवं संस्कृति का विकास किया, जो अपने आप में मौलिक, अनूठी और विश्व की अन्य संस्कृतियों एवं सामाजिक व्यवस्थाओं से भिन्न है। इस देश के महापुरुष, तीर्थस्थान, प्राचीन कलाकृतियाँ, धर्म, दर्शन और सामाजिक संस्थाएँ, भारतीय समाज एवं संस्कृति के सजग प्रहरी रहे हैं। उन्होंने इस देश की संस्कृति को अजर-अमर एवं जीवन्त बनाए रखने में योग दिया है।''39
भारत की भौगोलिक सीमाएँ विशाल एवं समृद्ध हैं। यही कारण है कि इसकी संस्कृति भी इतनी विशाल, विविधता से परिपूर्ण, व्यापक एवं समृद्धशाली है।* भारत की भौगोलिक सीमाओं का परिचय विष्णु पुराण में मिलता है
"उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेस्चैव दक्षिणम्।
वर्ष तद्भारतं नाम भारती यत्र सन्तति।।''40 भारतीय संस्कृति अपनी विविधताओं के कारण कभी भी छिन्न-विछिन्न नहीं हुई अपितु इन विविधताओं को अपने में समाहित कर और अधिक समृद्धशाली हुई है। भारतीय संस्कृति के निर्माण में भौगोलिक, राजनैतिक एवं सांस्कृतिक एकता ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। भारतीय संस्कृति के धार्मिक ग्रंथों यथा जैनागमों, वेदों, पुराणों, रामायण, महाभारत आदि में इस महान् भारतीय संस्कृति का चित्रण हुआ है, जिसका प्रत्येक भारतीय के जीवन पर गहरा प्रभाव है। हमारे ऋषि-मुनियों व आचार्यों ने इस संस्कृति का व्यावहारिक रूप हमारे समक्ष प्रस्तुत किया, जो विभिन्न जातियों तथा सम्प्रदायों के आचार-विचारों, विश्वासों
और आध्यात्मिक समन्वय से बनी है। इसी भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषताओं का निरूपण इस प्रकार है1. प्राचीनतम संस्कृति ___भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक मानी जाती है। वैसे चीन व मिस्र की सभ्यताएँ भी प्राचीन रही हैं, लेकिन सिंधु घाटी की सभ्यता सर्वाधिक प्राचीन संस्कृति मानी जाती है। जैन संस्कृति अनादि-अनन्त है। अन्य देशों की संस्कृतियाँ अवशेष रूप में देखने को मिलती है। बाहरी संस्कृतियों के आक्रमणों के बावजूद हमारी संसकृति अक्षुण्ण बनी हुई है,
* भरतक्षेत्र की विस्तृत जानकारी के लिए देखें 'जम्बूद्वीप'- प्रकाशक- श्री अ.भा.सा. जैन संघ
51