Book Title: Gnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Shashikala Chhajed
Publisher: Agam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन हालांकि अन्यान्य संस्कृतियों के प्रभाव से हमारी संस्कृति में परिवर्तन अवश्य हुए हैं, लेकिन हमारी संस्कृति के मूलाधार ज्यों के त्यों विद्यमान है। आज भी हमारा जीवन प्राचीन संस्कृति के अनुसार ही संचालित हो रहा है। 2. आत्मवत् सर्वभूतेषु
भारतीय संस्कृति विश्वकल्याण की भावना से ओतप्रोत रही है। जैन संस्कृति में तो केवल मानव कल्याण ही नहीं अपितु जीवमात्र के कल्याण की बात कही गई है। तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है- "परस्परोपग्रहोजीवानाम्।''43 सर्वकल्याण की भावना को व्यक्त करते हुए कहा गया है
"सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयाः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दुःखभाग् भवेत।।"44
इस सार्वजनीन कल्याण भावना का मूल आधार यह है कि समस्त जीवों में हमारी तरह ही चैतन्य तत्त्व की सत्ता विद्यमान है जो समस्त चराचर जगत को क्रियाशील बनाए हुए है। हमारी तरह सभी में सुख-दुःख से वेदन होता है किन्तु सभी को सुख प्रिय, दु:ख अप्रिय है।
विश्वकल्याण की यही भावना सम्पूर्ण विश्व को परिवार का रूप देती है। तभी तो यहाँ की संस्कृति में 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना फलवती हो रही है। 3. सहिष्णुता
__ भारत में अनेकानेक जातियों, धर्मों और संस्कृतियों का आगमन हुआ, भारतीय संस्कृति ने इन सभी को आत्मसात् कर लिया। हमने उन बाह्य संस्कृतियों को न केवल स्वीकार किया बल्कि उन्हें फूलने-फलने का अवसर भी दिया। यहाँ किसी भी संस्कृति का दमन नहीं किया गया और न ही किसी समूह पर हमने अपनी संस्कृति थोपने का प्रयास ही किया। इस सदंर्भ में शुक परिव्राजक एवं थावच्चापुत्र की चर्चा मननीय है। जैनागम में कहा गया है कि-"समण वह है जो पुरस्कार के पुष्पों को पाकर प्रसन्न नहीं होता और अपमान के हलाहल को देखकर खिन्न नहीं होता, अपितु सदा सम रहता है।''46 4. समन्वय की संवाहक
भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है- समन्वय। विरोधी तत्त्वों, विचारों, सम्प्रदायों, घटकों तथा व्यक्तियों के बीच समन्वय की भावना रखकर
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