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प्रथम अधिकार।
[१७ हे जिनराज ! आपके गुण कवियोंके बचनोंके भी अगोचर हैं अतएव आपके गुणोंका वर्णन करनेके लिये इस संसारमें कोई भी समर्थ नहीं है ॥ ७९ ॥ इसप्रकार भगवान महावीरस्वामीकी स्तुतिकर और गौतम आदि समस्त मुनिराजोंको नमस्कार कर वे महाराज श्रेणिक मनुष्योंके कोठे में जाकर बैठ गये ॥८॥ तदनंतर भगवान महावीरस्वामीने भव्य जीवोंको प्रबुद्ध करनेके लिये उन्हें समझानेके लिये परम आनंद उत्पन्न करनेवाला मनोहर धर्मोपदेश देना प्रारंभ किया ॥ ८१ ॥ मुनि और श्रावकोंके भेदसे धर्म दो प्रकारका है। उनमेंसे मुनिधर्मसे मोक्षकी सिद्धि होती है और श्रावकधर्मसे स्वर्गसुखकी सिद्धि होती है ।। ८२ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचानित के भेदसे वह मोक्षमार्ग तीन प्रकारका है ( तीनोंका समुदाय ती मोक्षमार्ग है ) उनमेंसे जीव, अजीव आदि सातों तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान करना ही सम्यग्दर्शन कहलाता है ॥ ८३ ॥ वह सम्यग्दर्शन दो प्रकारका है। एक निसर्गसे (उपदेशादिकके विना) उत्पन्न होनेवाला निसर्गज और दूसरा मगोचरान् ॥७९॥ इति स्तुति विधायसौ महावीरस्य सत्प्रभोः । गौतमादीन्मुनीन्नत्योपविटो नरकोष्ठ ।। ८० ॥ ततो वीरो वचोऽ वादीत्परमाह्लादकारणम् । धर्मोपदेशकं कांतं भव्यसंबोधहेतवे ॥८॥ यतिश्रावकभेदेन धर्मस्तु द्विविधो मतः। मुक्तिराधेन संसाध्या द्वितीयेन सुरालयः ॥ ८२ ॥ स सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रभेदतस्त्रिधा । तत्त्वार्थश्रद्दधानं यत्तत्सम्यग्दर्शनं मतम् ॥८३॥ तच्चापि द्विविधं ज्ञेयं निसर्गाधिगमात्पुनः । एकैकशस्त्रयो भेदाः कथिताः श्रीजिनेश्वरैः