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चौथा अधिकार ।
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बोलने से भी भारी पाप लगता है और ऐसे पापकर्मों का बंध होता है जिनके उदयसे सदा नरकादिके ही दुःख प्राप्त होते रहते हैं ।। १२७|| संसारमें यशरूपी बन अनेक प्रकारके आनंद देनेवाला है और अनेक प्रकारके उत्तम फल देनेवाला है। वह यशरूपी बन असत्यभाषणरूपी अग्निसे बहुत ही शीघ्र जल जाता है ।। १२८ ।। यह असत्यभाषण सदा अविश्वासका घर है, अनेक विपत्तियोंको देनेवाला है, महापुरुषोंके द्वारा निंदनीय है और मोक्षमार्गको बंद कर देनेवाला है ।। १२९ ॥ यह असत्य भाषण अनेक प्रकारके पाप उत्पन्न करनेवाला है और अससभाषणसे ही राजाके द्वारा मृत्युका दंड प्राप्त होता है इसलिये आत्मज्ञानसे सुशोभित होनेवाले विद्वान पुरुषों को यह असत्यभाषण कभी नहीं करना चाहिये ॥ १३०॥ देवोंका आराधन करनेवाले जो मनुष्य सदा सच बोलते हैं वे इस संसार में ही अनेक प्रकारकी शुभ संपत्तिसे विभूषित होते हैं ॥ १३१ ॥ सत्यभाषण के प्रसादसे विष भी अमृत हो जाता है, शत्रु भी परम मित्र हो जाते हैं और सर्प भी महत्पापं प्रजायते । दुःखं प्रलभ्यते येन नरकादिसमुद्भवम् ॥१२७॥ असत्यदहनस्तो मैर्भस्मीभवेद्यशोवनम् । भूरिप्रमोद संमुख्यनानासत्फलदायकम् ॥ १२८ ॥ अविश्वासगृहं नित्यं विपत्तीनां प्रदायकम् । महद्भिः पुरुषैर्निद्य मुक्तिद्वारकपाटम् ॥ १२९ ॥ असत्यतः प्रबध्यं नरा नृपैरघप्रदात् । अतस्तन्न प्रवक्तव्यं विद्यद्धिर्ज्ञानभास्वरैः ॥ १३० ॥ ये सत्यवाक् प्रजल्पते सुराराधनका नराः + जायंत इह ते लोके मूरिसंपत्प्रदाः शुभाः ॥ १३१ ॥ विषं सुधासमं नित्यं शत्रुः परम