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मौतमचरित्र |
तिर्यंचोंके दुःखोंको पापका फल समझना चाहिये ।। २३९ ॥ हे राजा श्रेणिक ! ये पुण्य पाप दोनों ही बंध हैं, इस जीवको दुःख देनेवाले हैं, पुण्य सोनेकी सांकलके समान है और पाप लोहेकी सांकलके समान है। जो जीव इन दोनोंसे रहित हो जाता है वही मुक्त होजाता है || २४० ॥ अनेक देव जिन्हें नमस्कार कर रहे हैं ऐसे वे गौतमस्वामी इसप्रकार धर्मोपदेश देकर चुप होगये । तदनंतर राजा श्रेणिक उनके चरणकमलोको नमस्कार कर अपने घरको चले गये ॥ २४९ ॥
तदनन्तर जिसप्रकार बादल घूमते फिरते हुए बरसते हैं और सबको प्रेम उत्पन्न करते हैं उसीप्रकार उन महामुनिराज श्रीगौतमस्वामीने भी अनेक देशोंमें विहार किया और सब जगह धर्मकी वृद्धि की || २४२ || आयुके अंत समय में ध्यान करते हुए वे चौदहवें गुणस्थानमें पहुँचे । अ इ उ ऋ ऌ इन पांचों ह्रस्व अक्षरोंके उच्चारण करनेमें जितना समय लगता है उतना ही समय चौदहवें गुणस्थानके उपांस ( अंतसमय से एक समय पहले ) समय में वे बाकीके कर्मोंका नाश करने लगे ॥ २४३ ॥ देवगति, देवगसानुपूर्वी, छह संहनन, पांच यद्दुःखं पापनं फलम् ॥ २३९ ॥ अतो जीवस्य तौ बंधौ स्वर्णायः शृंखले इव । तत्ताभ्यां रहितो जंतुर्मुक्तिं याति महीपते ॥ २४० ॥ इत्युक्त्वा गौतमो योगी विरराम सुरैर्नुतः । ततः तच्चरणं नत्वा श्रेणिकः स्वगृहं ययौ ॥ २४१ ॥ अथासौ भूरिदेशेषु विजहार महामुनिः । धर्मवृद्धिं प्रकुर्वाणो मेघवत्प्रीतिदायकः ॥ २४२॥ प्राप्य चतु शिस्थानं पंचलध्वक्षर स्थितिः । उपांतसमये शेषकर्मप्रणाशनोद्यतः ॥ २४३ ॥