Book Title: Gautam Charitra
Author(s): Dharmchandra Mandalacharya, Lalaram Shastri
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 206
________________ पांचवां अधिकार। [१६७ शरीर, पांच बंधन, पांच संघात, पांच वर्ण, पांच रस, शुभ, अशुभ, तीन आंगोपांग, सुगंध, दुर्गंध, छह संहनन, आठ स्पर्श, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, अप्रशस्तविहायोगति, उच्छ्वास, परघात, अगुरुलघु, उपघात, अपर्याप्त, अनादेय, स्थिर, अस्थिर, सुस्वर, दुःस्वर, प्रत्येक, दुर्भग, अयशस्कीर्ति, नीचगोत्र और असातावेदनीय ये बहत्तर प्रकृतियां उन्होंने उपांत्य समयमें ही अपने शुक्लध्यानरूपी तलवारसे नाश कर डालीं ॥२४४-२४७॥ जिन्हें इंद्र भी नमस्कार करता है ऐसे उन मुनिराज गौतमस्वामीने अंतिम समयमें साता वेदनीय, आदेय, पर्याप्त, त्रस, बादर, मनुष्यायु, पंचेंद्रिय जाति, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, ऊँचगोत्र, सुभग, यशस्कीर्ति ये बारह प्रकृतियां नष्ट की। तीर्थङ्कर प्रकृति उनके थी ही नहीं। जिन्हें तीनों लोकोंके जीव नमस्कार करते हैं और जो अनंत चतुष्टयसे सुशोभित हैं ऐसे उन गौतमस्वामीने अंतिम समयमें देवद्विकं च संस्थानषट्कं पंचशरीरकान् । पंच बंधनसंघातवर्णरसान शुभद्विकम् ॥ २४४ ॥ अंगोपांगत्रिका गंधौ तथा संहननानि षट् । स्पर्शाष्टकं च निर्माण नभोगतिद्वयं पुनः ॥२४५॥ उच्छ्वासः परघातं चागुरुलघूपघातकम् । अपर्याप्तमनादेयं स्थिरसुस्वरयुग्मकम् ॥२४६॥ प्रत्येकं दुर्भगाकीर्ती नीचैः कुलानिवेद्यके । द्विसप्ततिः जघानासौ शुक्लध्यानासिना तदा ॥२४७॥ ततोत्यसमयं प्राप्य मुनींद्रः शक्रवंदितः। तत्र सद्वेद्यकादेयं पर्याप्तं त्रसबादरे ॥ २४८ ॥ मनुष्यायुश्च पंचाक्षजातिं तु मानवद्विकम् । उच्चैः कुलं च सौभाग्यं यशस्तीर्थकरं विना ॥२४९॥ स गौतमो जगद्वंद्यो द्वादशप्रतिक्षयम् । नीत्वा मुक्ति

Loading...

Page Navigation
1 ... 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214