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गौतमचरित्र। शुभ, अशुभ, सूक्ष्म, स्थूल, पयाप्ति, अपर्याप्ति, स्थिर, अस्थिर, आदेय, अनादेय, यश-कीर्ति, अयश कीर्ति, तीर्थंकर ॥१२॥ जिसप्रकार कुंभार छोटे बड़े सब प्रकारके वर्तन बनाता है उसीप्रकार जो ऊंच और नीच गोत्रमें उत्पन्न करे उसे गोत्रकर्म कहते हैं उसके दो भेद हैं। ऊंचगोत्र, नीचगोत्र ॥५३ ॥ जिसप्रकार राजाके दिये हुए धनको खजांची रोक देता है उसी प्रकार जो दान, लाभ आदि लब्धियोंमें विघ्न करे उसे अंतराय कहते हैं । उसके पांच भेद है । दानांतराय, लाभांतराय, भोगांतराय, उपभोगांतराय, वीर्यातराय ॥५४॥ आगमको जाननेवाले विद्वानोंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय कर्मोकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागरकी बतलाई है ॥ ५५ ॥ मोहनीयकर्मकी सत्तर कोड़ाकोड़ी सागर, नाम, गोत्रकी वीस कोड़ाकोड़ी सागर और आयुकर्मकी तेतीस सागरकी उत्कृष्ट स्थिति है ॥५६॥ इन कर्मोकी जघन्य स्थिति वेदनीयकी वारह मुहूर्त है, नाम व गोत्रकी आठ मुहूर्त है और शेष कर्मोकी अंतमुहूर्त है ॥५॥ त्रिनवतिप्रभेदकम् ॥५२॥ नीचोच्चननने दक्षं गोत्रकर्म द्विधा मतम् । कुंभकारो यथा कुंभस्थाल्यादिकं करोति वै ॥ ५३ ॥ भूपतिना धनं दत्तं भांडागारी नरो यथा । निवारयति सल्लब्धीस्तथांतरायपंचकम् ॥१४॥ आदित्रिकांतरायाणां कोटीकोव्यः परा स्थितिः । त्रिंशद्रलाकराणां वै प्रोक्ता आगमकोविदः ॥ ५५ ॥ सप्ततिर्मोहनीयस्य विंशतिर्नामगोत्रयोः । त्रयस्त्रिंशत्पयोराशिरायुषो हि परा स्थितिः ॥ ५६ ॥ मुहूर्ता द्वादश प्रोक्ता वेद्यस्य नामगोत्रयोः । अपराष्टौ च